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१७२ / अपरिग्रह दर्शन के लिए किसी वस्तु को उचित रूप में लेना एवं उसका उचित रूप में ही उपयोग करना । और परिग्रह का अर्थ है--उचित-अनचित का विवेक किए बिना आसक्ति-रूप में वस्तुओं को सब ओर से पकड़ लेना, जमा करना,
और उनका मर्यादाहीन गलत असामाजिक रूप में उपयोग करना । क्योंकि वहाँ आसक्ति है।
वस्तु न भी हो यदि उसकी आसक्ति-मूलक मर्यादा-हीन अभीप्सा है, तो वह भी परिग्रह है। इसीलिए महावीर ने कहा था - 'मुच्छा परिग्गहो'-.-. मळ मन को ममत्व-दशा ही वास्तव में परिग्रह है। जो साधक ममत्व से मक्त हो जाता है, वह सोने-चाँदी के पहाड़ों पर बैठा हुआ भी अपरिग्रही कहा जा सकता है । वहाँ ममता नहीं है ।
इस प्रकार भगवान् महावीर ने परिग्रह की, एकान्त जड़वादी परिभाषा को तोड़ कर उसे भाववादो, चैतन्यवादी परिभाषा दी। अपरिग्रह का मौलिक अर्थ :
भगवान् महावीर ने बताया, अपरिग्रह का सीधा-सा अर्थ हैनिस्पहता, निरीहता। इच्छा ही सबसे बड़ा बन्धन है, दुःख है। जिसने इच्छा का निरोध कर दिया, उसे मुक्ति मिल गई । इच्छा-मुक्ति ही वास्तव में संसार-मुक्ति है। इसलिए सबसे प्रयम इच्छाओं पर, आकांक्षाओं पर संयम करने का उपदेश महावीर ने दिया। बहुत से साधक, जिनकी चेतना इतनी प्रबुद्ध होती है कि वे अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, महावती-संयमी के रूप में पूर्ण अपरिग्रह के पथ पर बढ़ते हैं। किन्तु इससे अपरिग्रह केवल संन्यास क्षेत्र को हो साधना मात्र बनकर रह जाता है, अतः सामाजिक क्षेत्र में आरिग्रह को अवतारणा के लिए उसे गृहस्थ-धर्म के रूप में भी एक परिभाषा दी गई।
महावीर ने कहा-सामाजिक प्राणी के लिए इच्छाओं का सम्पूर्ण निरोध, आसक्ति का समल विलय --यदि संभव न हो, तो वह आसक्ति को क्रमशः कम करने की साधना कर सकता है, इच्छाओं को सोमित करके ही वह अपरिग्रह का साधक बन सकता है ।
___इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं, उनका जितना विस्तार करते जाओ, वे उतनी ही व्यापक असोम बनतो जाएँगो, और उतनी ही चिन्ताएँ कष्ट, अशान्ति बढ़ती जाएंगी।
इच्छाएं सोमित होंगो, तो वित्ता और अशान्ति भी कम होंगी।
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