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परिग्रह की परिभाषा | ५
निवृत्त होने का उपदेश देता है। संसार से मुक्त होने की साधना करने वाला साधु भी आवश्यकताओं का पूर्णतः त्याग नहीं कर सकता। इसलिए आगम में वस्तु एवं आवश्यक पदार्थों को परिग्रह नहीं कहा है। मूर्छा और आसक्ति को परिग्रह कहा है।' तत्त्वार्थ सूत्र भी मूळ को ही परिग्रह बताया है।
जब साधु भी आवश्यकताओं से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकता, तब गृहस्थ उससे कैसे निवृत्त हो सकता है। वह अपने परिवार, समाज एवं राष्ट्र से सम्बद्ध है। गृहस्य अवस्था में रहते हुए वह इनसे अलग नहीं रह सकता। इसलिए वह अपने दायित्व एव उसके लिए आवश्यक आवश्यकताओं को कैसे भूल सकता है। अतः वह आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, परन्तु इच्छाओं को रोकने का प्रयत्न करता है । यही कारण है कि श्रावक के व्रत को इच्छा परिमाण व्रत बतलाया है, आवश्यकता परिमाण व्रत नहीं। इससे यह स्पष्ट होता है कि वस्तु का ग्रहण करना मात्र परिग्रह नहीं है । परिग्रह वस्तु से नहीं, मनुष्य को इच्छा, आकांशा एवं मनत्व भावना में है । अतः परिग्रह का अर्थ है -इच्छा, आकांक्षा, तृष्णा एवं ममत्व - मूर्छा भावना।
१ मुच्छा परिग्ग हो वुत्तो नायपुत्तण ताइणा । २. मूर्खा परिग्रहः।
~-दश वैकालिक सूत्र
-~-तत्त्वार्थ सूत्र
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