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________________ जीवन और संरक्षण | १३६ करना - यह तो अहिंसा का एक पक्ष है, समाज की दृष्टि से अधूरी साधना है। संपूर्ण अहिंसा की साधना के लिए प्राणिमात्र के साथ मैत्री भाव रखना, उसकी सेवा करना, उसे कष्ट से मुक्त करना आदि विधेयात्मक पक्ष पर भी समुचित मनन करना होगा । जैन आगमों में जहाँ अहिंसा के साठ एकार्थक नाम दिए गए हैं, वहाँ वह दया, रक्षा, अभय आदि के नाम से भी अभिहित की गई है । ' जैन आगमों, दर्शनों एवं साधना पथों में ही अहिंसा को सर्वोपरि माना गया है, ऐसी बात नहीं, विश्व के सभी धर्मों ने अहिंसा को एक स्वर से स्वीकारा है । बौद्ध धर्म में अहिंसक व्यक्ति को आर्य ( श्रेष्ठ पुरुष ) कहा गया है । उसका अटल सिद्धान्त इसी भावना पर आधारित है, कि मानव दूसरों को अपनी तरह जानकर न तो किसी को मारे और न किसी को मारने की प्रेरणा करे ।' जो न स्वयं किसी का घात करता है, न दूसरों से करवाता है, न स्वयं किसो को जीतता है, न दूसरों से जीतवाता है, वह सब प्राणियों का मित्र होता है, उसका किसी के साथ वंर नहीं होता । " अहिंसा परमो धर्म: वैदिक धर्मों में भी 'अहिंसा परमो धर्मः' के अटल सिद्धान्त को समक्ष रखकर उसकी महत्ता को स्वीकारा गया है। अहिंसा ही सबसे उत्तम एवं पावन धर्म है, अतः मनुष्य को कभी भी, कहीं भो और किसी भी प्राणि की हि नहीं करनी चाहिए । जो कार्य तुम्हें पसन्द नहीं उसे दूसरों के लिए भी न करो।" इस नश्वर जीवन में न तो किसी प्राणी की प्रश्न व्याकरण सूत्र ( संवर द्वार) (क) दया देहि- रक्षा २. सव्वे, तसंति दण्डस्स, सव्बेसं जीवितं पियं । अत्तानं उपमं १. ३. यो न हन्ति न मित्त सो सव्व ४. ५. - धम्मपद १०।१ कत्वा न हनेय्य न घातये ॥ धावेति न जिनाति न जायते । भूतेसु वेरं तस्स न केनचित् ॥ - इतिवृत्तक पृ०, २० अहिंसा परमो धर्मः सर्व-प्राण-भृतांवरः । तस्मात् प्राणभृतः सर्वान् मा. हिस्यान्मानुषः क्वचित् । - महाभारत आदि पर्व १ । १ । १३ आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । Jain Education International - प्रश्न व्याकरण वृत्ति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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