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________________ आसक्ति : परिग्रह | ६७ कर लेने वाले पर दुःखमय परिस्थिति का कुछ भी असर नहीं पड़ता। क्योंकि दुःख का मूल आसक्ति है। ____ इसके विपरीत जिस मनुष्य के जीवन पर इच्छा और आसक्ति ने कब्जा जमा रखा है, उसका जीवन शान्तिमय और खुलासा नहीं बन सकेगा । वह कदम-कदम पर रोता हुआ और झींकता हुआ चलेगा, और सिद्धान्त की हत्या करते हुए चलेगा। वह जीवन में खड़ा नहीं रह सकेगा, कि मुझे कोई अन्याय और अत्याचार करना है, तो फैसला करूं और सोच । उसके सामने यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होगा। वह किसी भी अन्याय और अत्याचार के लिए नहीं झिझकेगा और कुछ भी करने से नहीं हिचकेगा। अभिप्राय यह है, कि परिग्रह को इच्छा के रूप में समझना चाहिए। तमन्ना और लालसा के रूप में समझना चाहिए। जब ऐसा है, तब उसे छोड़ देने के बाद भी उसके लिए यदि लालसा रख छोड़ी है, तो वह परिग्रह ही है। बाहर से और ऊपर से वस्तु का त्याग कर देने पर भी अगर उसकी लालसा का त्याग नहीं हुआ और आसक्ति मन में रह गई, तो भगवान् महावीर का सन्देश है, कि वहां पर भी परिग्रह है। वस्तू त्याग दी है, किन्तु तद्विषयक वासना बनी हुई है; रस नहीं निकला है, तो कुछ नहीं बना है। जब तक रस न निकल जाए, कोई चीज पैदा होने वाली नहीं है। एक बहुत पुरानी घटना है। किसी राजकुमार ने दीक्षा ले ली, और सब कुछ छोड़ दिया। अपने विपुल वैभव को त्यागकर वह साधु बन गया। लोग उसके इस त्याग की प्रशंसा करने लगे । तब राजकुमार ने कहा --भाई, क्या कह रहे हो। मैंने क्या छोड़ा है। कुछ भी तो नहीं छोड़ा? लोगों ने कहा-आपने बहुत बड़ा त्याग किया है। इतना महान् त्याग कौन कर सकता है। दुनिया तो एक-एक पैसे के लिए मरती है, और उसे पाकर छाती से चिपटा लेती है। आपने इतना बड़ा वैभव त्याग दिया है, और फिर कहते हैं, कि मैंने त्यागा ही क्या है ? यह तो आपकी और भी बड़ी महिमा है ! तब राजकूमार ने कहा इसमें मेरी कोई महत्ता नहीं है। किसी के पास जहर की एक छोटी-सी पुड़िया है, और दूसरे के पास जहर की बोरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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