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________________ १२ | अपरिग्रह-दर्शन है, इसके विपरीत वह सारे संसार की चीजों को चाहता है, तो सारा संसार ही उसके लिए परिग्रह है। वह इन्द्र नहीं है, चक्रवर्ती सम्राट भी नहीं है, फिर भी उनसे कम परिग्रही नहीं है। सम्भव है, उसकी एक भी स्त्री न हो, लेकिन उसने वासना का परित्याग नहीं किया है, तो वह संसार की स्त्रियों का परिग्रही है। यही सिद्धान्त को बात है । इस प्रश्न को दार्शनिक कसौटी पर कस कर देखते हैं, और ऊपर तैरते रहें, तो जीवन का आनन्द जिस गहराई में है, वह गहराई नहीं मिलेगी। भगवान् महावीर का महत्वपूर्ण सन्देश यही आया, कि सब से पहले इच्छाओं को कम और सीमित करना चाहिए । यही कारण है, कि शास्त्र के मूल-पाठ में इच्छा के परिमाण को बात आई है। इच्छा का परिमाण कर लेने से वस्तु का परिमाण अपने आप हो जाता है । पहले अनागत के प्रवाह को रोना आवश्यक है। __ इस प्रकार अप्राप्त वस्तु नहीं, बल्कि अप्राप्त वस्तु की इच्छा परिग्रह है, प्राप्त वस्तु के विषय में भी यही बात समझनी चाहिए । अर्थात् प्राप्त वस्तु की इच्छा ही परिग्रह है। इच्छा का अभिप्राय यहां पर आसक्ति से है। प्राप्त वस्तुओं में आसक्ति न होना अपरिग्रह है । यदि यह अर्थ न लिया जाए और परिग्रह का अर्थ वस्तु लिया जाए, तो आनन्द के परिग्रह छोड़ने का कुछ अर्थ ही नहीं रहता, क्योंकि उसने किसी भी प्राप्त वस्तु को नहीं छोड़ा है। फिर भी उसने श्रावक के अनुरूप परिग्रह त्याग किया है, तो इसका अर्थ यही हो सकता है, कि उसने इच्छा या आसक्ति का त्याग किया है। इसलिए इच्छा ही वास्तव में परिग्रह है। परिग्रह होने और न होने के लिए यह आवश्यक नहीं, कि वस्तु है या नहीं है, किन्तु इच्छा का होना और न होना आवश्यक है। अर्थात जहां इच्छा है वहां परिग्रह है, और जहाँ इच्छा का त्याग है, वहाँ परिग्रह का भी त्याग है। कल एक प्रश्न उपस्थित किया गया था। भिक्ष ज्ञान प्राप्ति के लिए पुस्तकें रखता है, भिक्षा के लिए पात्र रखता है, और पात्र में आहारपानी इकट्ठा कर लेता है। परिवार के रूप में शिष्य रख लेता है, और जीवन के साधन वस्त्र, ओधा, पूजनी आदि उपकरण भी रखता है। इनमें से कुछ चीजें धर्म के लिए और कुछ जिन्दगी के लिए आवश्यक हैं । अब प्रश्न यह है, कि इन सब चीजों के रहते हुए भिक्ष परिग्रहो है या नहीं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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