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________________ विचरण करे, परन्तु वह ईश्वर कभी नहीं बन सकता । मनुष्य के विकास की कुछ सीमा है, और वह सीमा ईश्वर की इच्छा के नीचे है। मनुष्य को चाहिए कि वह उसकी कृपा का भिखारी बन कर रहे, इसीलिए तो श्रमणेतर-संस्कृति का ईश्वर कहता है-“मनुष्य ! तू मेरी शरण में आ, मेरा स्मरण कर। तू क्यों डरता है ? मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा, शोक मत कर । हाँ, मुझे अपना स्वामी मान और अपने को मेरा दास!"२ बस इतनी-सी शर्त पूरी करनी होगी, और कुछ नहीं । अवतारवाद या शरणवाद: कोई भी तटस्थ विचारक इस बात पर विचार कर सकता है कि यह मान्यता मानवसमाज के नीतिक बल को उल को घटाती है. या नहीं? कोई भी समाज इस प्रकार की विचारपरम्परा का प्रचार कर अपने आचरण के स्तर को ऊँचा नहीं उठा सकता। यही कारण है कि भारतवर्ष की जनता का नैतिक-स्तर बराबर नीचे गिरता जा रहा है। लोग पाप से नहीं बचना चाहते, सिर्फ पाप के फल से बचना चाहते हैं। और पाप के फल से बचने के लिए भी किसी ऊँची कठोर साधना की आवश्यकता नहीं मानते, बल्कि केवल ईश्वर या ईश्वर के अवतार राम, कृष्ण प्रादि की शरण में पहुँच जाना ही इनकी दृष्टि में सबसे बड़ी साधना है, बस इसी से बेड़ा पार हो जाएगा। जहाँ मात्र अपने मनोरंजन के लिए तोते को रामनाम रटाते हुए वेश्याएँ तर जाती हों और मरते समय मोह-वश अपने पुत्र नारायण को पुकारने भर से सर्वनियन्ता नारायण के दूत दौड़े आते हों एवं उस जीवन-भर के पापी अजामिल को स्वर्ग में ले पहुँचते हों, वहाँ भला जीवन की नैतिकता और सदाचरण की महत्ता का क्या मूल्य रह जाता है ? सस्ती भक्ति, धर्माचरण के महत्त्व को गिरा देती है और इस प्रकार अन्ध-भक्ति से पल्लवित हुमा अवतारवाद का सिद्धान्त जनता में 'शरणवाद' के रूप में परिवर्तित हो जाता है। पाप करो, और उसके फल से बचने के लिए प्रभु की शरण में चले जाओ। अवतारवाद के आदर्श केवल आदर्शमात्र रह जाते हैं, वे जनता के द्वारा अपनाने योग्य यथार्थता के रूप में कभी नहीं उतर पाते । अतएव जब लोग राम-कृष्ण आदि किसी अवतारी महापुरुष की जीवन-लीला सुनते हैं, तो किसी ऊँचे आदर्श की बात आने पर झट-पट कह उठते हैं कि "अहा, क्या कहना है ! अजी भगवान् थे, भगवान् ! भला भगवान् के अतिरिक्त कौन दसरा यह काम कर सकता है!" इस प्रकार हमारे प्राचीन महापरुषों के अहिंसा, दया, सत्य, परोपकार आदि जितने भी श्रेष्ठ एवं महान गुण हैं, उन सबसे अवतारवादी लोग मह मोड़ लेते हैं, अपने को साफ वचा लेते हैं। अवतारवादियों के यहाँ जो कुछ भी है, सब प्रभु की लीला है। वह केवल सुनने-भर के लिए है, आचरण करने के लिए नहीं। भला, सर्वशक्तिमान ईश्वर के कामों को मनुष्य कहीं अपने आचरण में उतार सकता है ? अवतारों का चरित्र : श्रव्य या कर्तव्य ? कुछ प्रसंग तो ऐसे भी आते हैं, जो केवल दोषों को ढंकने का ही प्रयत्न करते हैं। जब कोई विचारक, किसी भी अवतार के रूप में माने जानेवाले व्यक्ति का जीवन चरित्र पढ़ता है, और उसमें कोई नैतिक जीवन की भूल पाता है, तो वह विचारक होने के नाते उचित आलोचना करता है, अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहता है। किन्तु अवतारवादी लोग विचारक का यह अधिकार छीन लेते हैं। ऐसे प्रसंगों पर वे प्रायः कहा करते हैं-"अरे, तुम क्या जानो? यह सब उस महाप्रभु की माया है। वह जो कुछ भी करता है, अच्छा ही करता है। जिसे हम आज बुराई समझते है, उसमें भी कोई-न-कोई भलाई ही रही होगी! हमें श्रद्धा रखनी चाहिए, ईश्वर का अपवाद नहीं करना चाहिए !" इस प्रकार अवतारवादी लोग श्रद्धा की दुहाई देकर स्वतन्त्र चिन्तन एवं गुण-दोष के परीक्षण २. अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः । -गीता १८६६. पन्ना समिक्खए धम्म www.jainelibrary.org Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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