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________________ है, उसको आया है ? तुम ५०-६० वर्ष की जिन्दगी गुजर जाने की बात करते हो, किन्तु मेरी दष्टि में तो तुम्हारी अनन्तानन्त काल की लम्बी जीवन-यात्रा की झलक है, जो अनन्त अतीत से आज तक तुम नहीं कर सके, वह अब नहीं कर सकते क्या? कर सकते हो। जो आत्मा का ज्ञान आज तक नहीं मिला, वह ज्ञान, वह प्रकाश, प्राज मिला है। अपने प्रात्मस्वरूप का जागरण तुम में आज हुआ है। यह कोई साधारण बात नहीं है। जो आज तक नहीं हो सका, वह अब हो सकता है। आवश्यकता सिर्फ एक करवट बदलने की है, अंगड़ाई भरने की है। जब बन्धन को समझ लिया, उसकी अत्यन्त तुच्छ हस्ती को देख लिया, तो फिर तोड़ने में कोई विलम्ब नहीं हो सकता-- "बुझिज्जत्ति तिउट्टिज्जा बंधणं परिजाणिया।" सूत्रकृतांग, १, १, १, १ बन्धन को समझो और तोड़ो ! तुम्हारी अनन्त-शक्ति के समक्ष बन्धन की कोई हस्ती नहीं है। बस, भगवान महावीर का यह एक ही उपदेश उनके लिए पालोक-स्तम्भ बन गया और जीवन की अन्तिम घड़ियों में उन्होंने वह कर दिखाया, जो अनन्त जन्म लेकर भी नहीं कर सके थे। बन्धन-मक्त होने में उन्हें कितनी देर लगी. बहतों को तो कुछ भी नहीं। सारांश यह है कि बंधन का कर्ता आत्मा ही बंधन को तोड़ने वाला है। इसके लिए अपने स्वरूप को, अपनी शक्ति को जगाकर प्रयत्न करने की आवश्यकता है, बस, मुक्ति तैयार है। और मक्ति प्राप्त करने पर चौरासी लाख योनियों में भटक कर बार-बार प्राप्त होने वाले जन्म और मत्य के अपार दुःखों से छटकारा प्राप्त हो जाता है। वह मुक्तावस्था कब आती है? वह तब आती है, जब प्राणी अपने अन्तर्-देव की पहचान कर लेता है। अन्तर्-देव की पहचान होते ही व्यक्ति स्वयं परमात्मा बन जाता है। परमात्मरूप प्राप्त करने पर स्वयं प्रात्मदेव बन जाता है । और आत्मदेव की स्थिति पर पहुँच कर आत्मा सुख-दुःख, पाप-पुण्य आदि इन समस्त बंधनों से मुक्त सर्वज्ञ वीतराग पद को प्राप्त करने में सहज समर्थ होता है । मुक्ति का यही प्रशस्त द्वार है। मुक्ति का साधन : जैन-धर्म के अनुसार प्रात्मा शरीर और इन्द्रियों से पथक है। मन और मस्तिष्क से भी भिन्न है। वह जो कुछ भी है, इस मिट्टी के ढेर से परे है। वह जन्म लेकर भी अजन्मा है और मर कर भी अमर है। कुछ लोग आत्मा को परमात्मा या ईश्वर का अंश कहते हैं। परन्तु, वह किसी का भी अंश-वंश नहीं है, किसी परमात्मा का स्फुलिंग नहीं है। वह तो स्वयं पूर्ण परमात्मा, विशुद्ध अात्मा है। आज वह बेबस है, बे-भान है, लाचार है, परन्तु जब वह मोह-माया और अज्ञान के परदों को भेद कर, उन्हें छिन्न-भिन्न करके अलग कर देगा, तो अपने पूर्ण परमात्म-स्वरूप में चमक उठेगा ! अनन्तानन्त कैवल्य-ज्योति जगमगा उठेगी उसके अन्दर ! भारतीय-दर्शनों ने, जिनका मलस्वर प्राय: एक ही है। किन्तु, अपनी बात को कहने की जिनकी शैली भिन्न-भिन्न है, प्रश्न उठाया गया है कि मोक्ष एवं मुक्ति का मार्ग, उपाय, साधन एवं कारण क्या है ? यह प्रश्न बहुत ही गम्भीर है। प्रत्येक युग के समर्थ आचार्य ने अपने युग की जन-चेतना के समक्ष इसका समाधान करने का प्रयत्न किया है। किन्तु जैसे-जैसे युग आगे बढ़ा, वैसे-वैसे वह प्रश्न भी आगे बढ़ता रहा, और हजारों वर्ष पहले, जैसा प्रश्न था, वैसा प्रश्न आज भी है। भौतिकवादी-दर्शनों को छोड़कर समग्र अध्यात्मवादी-दर्शनों का साध्य एक ही है-मोक्ष एवं मुक्ति । साध्य में किसी प्रकार का विवाद नहीं है, विवाद है केवल साधन में। एक ने कहा है--मुक्ति का एकमात्र साधन ज्ञान ही है। दूसरे ने कहा है-- मुक्ति का एक मात्र साधन, भक्ति ही है । और, तीसरे ने कहा है, पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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