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इस प्रकार संसार और मोक्ष का कोई महत्त्व न रहेगा, कोई व्यवस्था न रहेगी। इसके अतिरिक्त कर्म-सन्तति को सादि मानने वालों को भी यह बताना होगा. कि कब से कर्म यात्मा। के साथ लगे और क्यों लगे? इस प्रकार किसी प्रकार का समाधान नहीं किया जा सकता। इन सब तर्कों से यही सिद्ध होता है कि आत्मा के साथ कर्म का अनादि-काल से संबंध है।
कर्म-बन्ध के कारण :
__यदि यह मान लिया जाए कि जीव के साथ कर्म का अनादि सम्बन्ध है। परन्तु, फिर इस तथ्य को स्वीकार करने पर यह प्रश्न सामने आता है, यह बन्ध किन कारणों से होता है ? उक्त प्रश्न के समाधान में कर्म-ग्रन्थों में दो अभिमत उपलब्ध होते हैं--पहला, कर्मबन्ध के पाँच कारण मानता है--१. मिथ्यात्व, २. अविरति, ३. प्रमाद, ४, कषाय और ५. योग । दूसरा, कर्म-बन्ध के कारण केवल दो मानता है--कषाय और योग। यहाँ पर यह समझ लेना चाहिए कि कषाय में मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद अन्तर्भूत हो जाते हैं। अतः संक्षेप की दृष्टि से कर्म-बंध के हेतु दो और विस्तार की अपेक्षा से कर्म-बन्ध के हेतु पाँच है। दोनों अभिमतों में कोई मौलिक भेद नहीं है।
___ कर्म-ग्रन्थों में बन्ध के चार भेद बताए गए हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ।' इनमें से प्रकृति---कर्म का अपना फल प्रदान रूप स्वभाव और प्रदेश-कर्म-पुद्गलों का दल, इनका बन्ध योग से होता है तथा कर्म की स्थिति और उसका तीव्र-मन्द प्रादि अनुभाग-रस. का बन्ध कषाय से होता है। जिस प्रकार मकड़ी अपनी ही प्रवृत्ति से अपने बनाए हुए जाले में फंस जाती है, उसी प्रकार यह जीव भी अपनी राग-द्वेष--कवाय रूपी प्रवृत्ति से अपने आपको कर्म-पुद्गल के जाल में फंसा लेता है। कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति अपने शरीर में तेल लगाकर यदि धूलि में, मिट्टी में लेट जाए, तो वह धूलि-मिट्टी उसके शरीर पर चिपक जाती है। अतः जिस प्रकार से वह धूलि उसके शरीर में चिपक जाती है, ठीक इसी प्रकार जीव भी अपने स्निग्ध परिणामों के योग से कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है और राग-द्वेष रूप कषायभाव के कारण उन कर्म-दलिकों का आत्म-प्रदेशों के साथ अमुक काल तक संश्लेष हो जाता है। वस्तुतः यही बन्ध है। जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में माया, अविद्या, अज्ञान और वासना को कर्म-बन्ध का कारण माना गया है। शब्द-भेद और प्रक्रिया-भेद होने पर भी मूल भावनाओं में मौलिक भेद नहीं है। न्याय एवं वैशेषिक-दर्शन में मिथ्या-ज्ञान को, योग-दर्शन में प्रकृति और पुरुष के संयोग को, वेदान्त में अविद्या एवं अज्ञान को तथा बौद्धदर्शन में वासना को कर्म-बन्ध का कारण माना गया है ।
कर्म-बन्ध से मुक्ति के साधन :
भारतीय-दर्शन में जिस प्रकार कर्म-बन्ध और कर्म-बन्ध के कारण माने गए हैं, उसी प्रकार उस कर्म-बन्ध से मुक्ति-प्राप्ति के साधन भी बताए गए हैं। मुक्ति, मोक्ष और निर्वाण प्रायः समान अर्थों में प्रयुक्त होते हैं। बन्धन से विपरीत दशा को ही मुक्ति एवं मोक्ष कहा जाता है। यह सत्य है, जीव के साथ कर्म का प्रतिक्षण नया-नया बन्ध होता है। एक ओर पुरातन कर्म अपना फल देकर प्रात्मा से अलग होते जाते हैं, और दूसरी ओर नये कर्म प्रतिक्षण बंधते रहते हैं। परन्तु, इसका फलितार्थ यह नहीं निकाल लेना चाहिए कि अात्मा कभी कर्मों से मुक्त होगा ही नहीं। जैसे स्वर्ण और मिट्टी परस्पर मिल कर एकमेक हो जाते हैं, किन्तु ताप आदि की प्रक्रिया के द्वारा जिस प्रकार मिट्टी को अलग कर के शुद्ध स्वर्ण को अलग कर लिया जाता है, उसी प्रकार अध्यात्म-साधना से प्रात्मा कर्म एवं कर्म-फल से छूट कर शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो सकता है। यदि आत्मा एक बार कर्म-विमुक्त हो जाता
१. स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्तः, स्थिति कालावधारणम् ।
अनुभावो रसो ज्ञेयः, प्रदेशो दल-संचयः ।।
आत्मा और कर्म
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