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________________ का आखिर यही परिणाम होता है कि जैसे भी हो ईश्वर को प्रसन्न किया जाए और अपना मतलब साधा जाए! भगवान् महावीर ने प्रस्तुत सन्दर्भ में मानव को उद्बोधन देते हुए कहा है--"मानव ! विश्व में तू ही सर्वोपरि है। यह जो दीनता और हीनता है वह तेरे स्वयं के अज्ञान का दुष्फल है। जो तू अच्छा-बुरा कुछ भी पाता है, वह तेरा अपना किया हुआ होता है, वह किसी का दिया हुआ नहीं होता। तु ईश्वर की सृष्टि नहीं है, बल्कि ईश्वर ही तेरी सृष्टि है।" ईश्वर का अस्तित्व है; परन्तु वह मनुष्य से भिन्न कोई परोक्ष सत्ता नहीं है। ईश्वर शासक है और मनुष्य शासित, ऐसा कुछ नहीं है। मानवीय-चेतना का चरम विकास ही ईश्वरत्व है। ईश्वर कोई एक व्यक्ति विशेष नहीं, अपितु एक आध्यात्मिक भूमिका विशेष है, जिसे हर कोई मानव प्राप्त कर सकता है। ईश्वरत्व की स्थिति पाने के लिए न किसी तथाकथित देश का बन्धन है, न किसी जाति, कुल और पन्थ विशेष का। जो मनुष्य आध्यात्मिक विकास की उच्च भूमिका तक पहुँच जाता है, राग-द्वेष के विकारों से अपने को मुक्त कर लेता है, स्व में स्व की लीनता प्राप्त कर लेता है, वह परमात्मा हो जाता है। भगवान् का कहना था कि हर प्रात्मा शक्ति रूप से तो अब भी ईश्वर है, सदा ही ईश्वर है । आवश्यकता है उस शक्ति को अभिव्यक्ति देने की। हर विन्दु में सिन्धु छिपा है । सिन्धु का क्षुद्र रूप बिन्दु है, बिन्दु का विराट रूप सिन्धु है। मानवीय-चेतना जब क्षद्र रहती है, राग-द्वेष के बन्धन में बद्ध रहती है, तब तक वह एक साधारण संसारी प्राणी है। परन्तु जब चेतना विकृति-शून्य होती है, आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च सीमा पर पहेंचती है, तो वह परम चेतना बन जाती है, परमात्मा हो जाती है। परमात्मा मूलत: और कुछ नहीं है, सदा-सदा के लिए चेतना का शुद्ध हो जाना ही परमात्मा होना है। सांसारिक वासना की भूमिका पर खड़ी बद्ध चेतना अन्दर में दुर्बलतानों की शिकार है, अतः वह अन्तर्मन के सागर में तरंगायित होनेवाली विकृतियों के आदेशों का पालन करती है, निर्दिष्ट माँगों का अनुसरण करती है। तन और मन की कुछ सुविधाओं को पाकर वह सन्तुष्ट हो जाती है। परन्तु चेतना के सूक्ष्म अन्तःस्तर पर जब परिवर्तन होता है, अधोमुखता से ऊर्ध्वमुखता आती है, तब जीवन के समग्र तोष-रोष अर्थात् राग-द्वेष समाप्त हो जाते हैं। प्रात्मानन्द की शाश्वत-धारा प्रवाहित हो जाती है. और इस प्रकार चेतना अनन्त प्रज्ञा में परिवर्तित एवं विकसित होकर परमात्मा हो जाती है। चेतना का शुद्ध रूप ही प्रज्ञा है, जिसे दर्शन की भाषा में ज्ञान-चेतना कहते हैं। बाहर के किसी विकारी प्रभाव को ग्रहण न करना ही अर्थात् राग या द्वेष के छद्म रूपों से प्रभावित न होना ही चेतना का प्रज्ञा-चेतना हो जाना है, ज्ञान-चेतना हो जाना है। यही आध्यात्मिक पवित्रता है, वीतरागता है, जो आत्म-चेतना को परमात्म-चेतना में रूपान्तरित करती है, जन से जिन और नर से नारायण बना देती है। यह विकासप्रक्रिया क्रमिक है। जितना-जितना प्रज्ञा के द्वारा चेतना का जड़ के साथ चला पाया रागात्मक संपर्क टूटता जाता है, जितना-जितना भेद-विज्ञान के आधार पर जड़ और चेतना का विभ विभाजन गहरा, और गहरा होता जाता है, उतनी-उतनी चेतना में परमात्व-स्वरूप की अनुभूति स्पष्ट होती जाती है। अध्यात्म-भाव की इस विकास-प्रक्रिया को महावीर ने गुणस्थान की संज्ञा दी है। आत्मा से परमात्मा होने की विकास प्रक्रिया के सम्बन्ध में भगवान् ने स्पष्ट घोषणा की है---“परमात्मा विश्व-प्रकृति का द्रष्टा है, स्रष्टा नहीं। स्रष्टा स्वयं विश्व-प्रकृति है। विश्व-प्रकृति के दो मूल तत्त्व है-जड़ और चेतन। दोनों ही अपने अन्दर में कर्त त्व की वह शक्ति लिए हुए हैं, जो स्वभाव से विभाव और विभाव से स्वभाव की ओर गतिशील रहती है। पर के निमित्त से होनेवाली कर्व त्वं शक्ति विभाव है, और पर के निमित्त से रहित स्वयंसिद्ध सहज कार्त त्वशक्ति स्वभाव है। जब चेतन-तत्त्व पूर्ण शुद्ध होकर परमात्म-चेतना का रूप लेता है, तब वह पराश्रितता से मुक्त हो जाता है, पर के कर्तत्व का विकल्प उसमें नहीं रहता, 'स्व' अपने ही 'स्व' रूप में पूर्णतया समाहित हो जाता है।" यह चेतना की विभाव से स्वभाव में पूरी तरह वापस लौट पाने की अन्तिम स्थिति है। और, यह तत्त्वमसि ५१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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