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________________ को जागृत करने की दिशा में अमोघ सान्त्वना एवं प्रेरणा दी है साधना के मार्ग पर लड़खड़ाते पंगु मन को केवल बाह्य क्रियाकलापरूपी लाठी का सहारा ही नहीं दिया गया, बल्कि इधर-उधर की पराश्रित भावना की वैसाखी छुड़ाकर, उसमें प्राध्यात्म मार्ग पर दौड़ लगाने की एक अद्भुत शक्ति भी जागृत कर दी। सद्गुरु ने उस दीन-हीन आत्मा की प्रसुप्त शक्ति को जागृत करके उसे भिखारी से सम्राट् बना दिया । उस दीन एवं हीन आत्मा को, जो अपने अन्दर अनन्त शक्ति के होते हुए भी विलाप करती थी, अध्यात्म-भाव की मधुर प्रेरणा देकर इतना अधिक शक्ति सम्पन्न बना दिया कि वह स्वयं ही सन्मार्ग पर अग्रसर नहीं हुई, बल्कि उसने दूसरों को भी सन्मार्ग पर लाने के प्रयत्न में महान सफलता प्राप्त की । भारतीय-दर्शन कहता है कि संसार की कोई भी प्रात्मा, भले ही वह अपने जीवन के कितने ही नीचे स्तर पर क्यों न हो, भूल कर भी उससे घृणा और द्वेष नहीं करना चाहिए । क्योंकि न जाने कब उस आत्मा में परमात्म भाव की जागृति हो जाए । प्रत्येक आत्मा अध्यात्म- गुणों का क्षय एवं अनन्त अमृत कूप है, जिसका न कभी अन्त हुग्रा है और न कभी अन्त होगा । विवेक ज्योति प्राप्त हो जाने पर प्रत्येक आत्मा अपने उस परमात्म-स्वरूप अमृत-रस का प्रास्वादन करने लगती है । आत्मा का यह शुद्ध स्वरूप अमृत कहीं बाहर नहीं, बल्कि स्वयं उसके अन्दर में ही है। वह शुद्ध स्वरूप कहीं दूर नहीं है, अपने समीप ही है । समीप भी क्या ? जो है, वह स्वयं ही है। बात बस इतनी-सी है, जो गलत रास्ता पकड़ लिया गया है, उसे छोड़कर सम्यक् राह पर आ जाता है। जीवन की गति - प्रगति को रोकना नहीं, बल्कि उसे अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध की ओर मोड़ देना है । जैन-दर्शन के अनुसार, प्रत्येक चेतन एवं प्रत्येक प्रात्मा - प्रक्षय एवं अनन्त चित्-कूप है, जिसमें शुद्ध चिदानन्दरूप अमृत रस का प्रभाव नहीं है । प्रत्येक आत्मा में अनन्त अनन्त गुण हैं। वह कभी गुणों से रिक्त एवं शून्य नहीं हो सकता । आत्मा उस धन कुबेर के पुत्र के समान है, जिसके पास कभी धन की कमी नहीं होती, भले ही अज्ञानता के कारण वह अपने उस अक्षय भंडार का दुरुपयोग ही क्यों न कर रहा हो । शक्ति का यह अक्षय धन तो आपके पास भी है, परन्तु उसे दुरुपयोग से हटा कर सदुपयोग में लगाना है । यदि इतना कर सके, तो फिर समझ लीजिए, प्रापके जीवन का समस्त दुःख, सुख में बदल जाएगा, समस्त अशान्ति, शान्ति में बदल जाएगी और सारी विषमताएँ, समता में बदल जाएँगी । जीवन का हा-हाकार, 'अहो हो' की प्रानन्द- धारा में परिणत हो जाएगा। फिर जीवन में किसी भी प्रकार के द्वन्द्व, संघर्ष और प्रतिकूल भाव कभी नहीं रहेंगे । जड़ प्रकृति के पास केवल सत्ता है, चेतना नहीं । संसारी ग्रात्मा के पास सत्ता भी है और चेतना भी है । यदि उसके पास कुछ कमी है, तो सिर्फ स्थायी सुख एवं स्थायी आनन्द की कमी है। आत्मा को परमात्मा बनने के लिए यदि किसी वस्तु की आवश्यकता है, तो वह है उसका अक्षय एवं ग्रनन्त आनन्द | अक्षय आनन्द की उपलब्धि के लिए आत्मा में निरन्तर उत्कण्ठा रहती है । वह सदा आनन्द और सुख की खोज करती है। प्रश्न यह है कि संसार के प्रत्येक प्राणी को सुख की खोज क्यों रहती है ? उसका कारण यह है कि सुख और आनन्द आत्मा का निज रूप है, वह इसके बिना नहीं रह सकती। इसलिए वह इसे पाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहती है । चींटी से लेकर हाथी तक और गन्दी नाली के कीट से लेकर सुरलोक में रहने वाले इन्द्र तक सभी सुख चाहते हैं, आनंद चाहते हैं । विश्व की छोटी-से-छोटी चेतना भी सुख चाहती है; भले ही, उस सुख को वह अपनी भाषा अभिव्यक्त न कर सके । हाँ, यह सम्भव है कि सबकी सुख की कल्पना एक जैसो न हो, किन्तु यह निश्चित है कि सबके जीवन का एकमात्र ध्येय सुख की प्राप्ति है । सुख कहाँ मिलेगा ? कैसे मिलेगा ? यह तथ्य भी सबकी समझ में एक जैसा नहीं है । किन्तु, सचेतन जीवन में कभी भी सुख की अभिलाषा का प्रभाव नहीं हो सकता, यह ध्रुव सत्य है । सुख की अभिलाषा तो सभी को है, किन्तु उसे प्राप्त करने का प्रयत्न और वह भी उचित प्रयत्न कितने कर पाते हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है । जो उचित एवं सही प्रयत्न करेगा, वह तत्वमसि ૪૨ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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