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भगवन् को दीपक की उपमा क्यों दी गई है ? सूर्य और चन्द्र प्रादि की अन्य सब उत्कृष्ट उपमाएँ छोड़ कर दीपक ही क्यों अपनाया गया? प्रश्न ठीक है, परन्तु जरा गम्भीरता से सोचिए, नन्हें से दीपक की महत्ता, स्पष्टतः झलक उठेगी। बात यह है कि सूर्य और चन्द्र प्रकाश तो करते है, किन्तु किसी को अपने समान प्रकाशमान नहीं बना सकते। इधर लघ दीपक अपने संसर्ग में पाए, अपने से संयुक्त हुए हजारों दीपकों को प्रदीप्त कर अपने समान ही प्रकाशमान दीपक बना देता है। वे भी उसी की तरह जगमगाने लगते हैं और अन्धकार को छिन्न-भिन्न करने लगते हैं। अतः स्पष्ट है कि दीपक प्रकाश देकर ही नहीं रह जाता, वह दूसरों को अपने समान भी बना लेता है। तीर्थंकर भगवान् भी इसी प्रकार केवलज्ञान का प्रकाश प्राप्त कर मौन-विश्रान्ति नहीं लेते, प्रत्युत अपने निकट संसर्ग में आने वाले अन्य साधकों को भी साधना का पथ प्रदर्शित कर, अन्त में अपने समान ही अर्हन्त बना लेते हैं। तीर्थंकरों का ध्याता, सदा ध्याता ही नहीं रहता, वह ध्यान के द्वारा अन्ततोगत्वा, ध्येय-रूप में परिणत हो जाता है। उक्त सिद्धान्त की साक्षी के लिए गौतम और चन्दना आदि के इतिहास प्रसिद्ध उदाहरण, हर कोई जिज्ञासु देख सकता है।
अभयदय:--अभय-दान के दाता :
संसार के सब दानों में अभय-दान श्रेष्ठ है। हृदय की करुणा अभय-दान में ही पूर्णतया तरंगित होती है। अभयदान की महत्ता के सम्बन्ध में भगवान महावीर के पंचम गणधर सुधर्मा का अनुभूत बोध-वचन है
'दाणाण सेठं अभयप्पयाणं ।'
---सूत्रकृतांग, ६।२३ अस्तु, तीर्थकर भगवान् तीन लोक में अलौकिक एवं अनुपम दयालु होते हैं। उनके हृदय में करुणा का सागर हर क्षण तरंगित रहता है। विरोधी-से-विरोधी के प्रति भी उनके हृदय से करुणा की सतत धारा ही बहा करती है। गोशालक कितना उद्दण्ड प्राणी था ? परन्तु, भगवान् ने तो उसे भी क्रुद्ध तपस्वी की तेजोलेश्या से जलते हुए बचाया। चण्डकौशिक पर कितनी अनन्त करुणा की है ? तीर्थकर देव उस युग में जन्म लेते हैं, जब मानव-सभ्यता अपना पथ भूल जाती है। फलतः सब अोर अन्याय एवं अत्याचार का दम्भपूर्ण साम्राज्य छा जाता है। उस समय तीर्थकर भगवान् क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या राजा, क्या रंक, क्या ब्राह्मण, क्या शूद्र, सभी को सन्मार्ग का उपदेश करते हैं। संसार के मिथ्यात्व-वन में भटकते हुए मानव-समूह को सन्मार्ग पर लाकर उसे निराकुल बनाना, अभय-प्रदान करना, एकमात्र तीर्थकर देवों का ही महान कार्य है ! चक्षुर्दय : ज्ञाननेत्र के दाता :
तीर्थकर भगवान् आँखों के देने वाले हैं। कितना ही हृष्ट-पुष्ट मनुष्य हो, यदि आँख नहीं, तो कुछ भी नहीं। आँखों के अभाव में जीवन भार हो जाता है। अंधे को आँख मिल जाए, फिर देखिए, कितना आनंदित होता है वह। तीर्थंकर भगवान वस्तुतः अंधों को आँखें देने वाले है। जब जनता के ज्ञाननेनों के समक्ष अज्ञान का तिमिर-जाल छा जात तब तीर्थकर ही जनता को ज्ञान-नेत्र अर्पण करते हैं, अज्ञान का जाला साफ करते हैं।
पुरानी कहानी है कि एक देवता का मन्दिर था, बड़ा ही चमत्कार पूर्ण! वह, पाने वाले अन्धों को नेत्र-ज्योति दिया करता था। अन्धे लाठी टेकते पाते और इधर आँखें पाते ही द्वार पर लाठी फेंक कर घर चले जाते ! तीर्थंकर भगवान भी वस्तुतः ऐसे ही चमत्कारी देव हैं। इनके द्वार पर जो भी काम और क्रोध आदि विकारों से दूषित अज्ञानी अन्धा आता है, वह ज्ञान-नेत्र पाकर प्रसन्न होता हुआ लौटता है। चण्डकौशिक आदि ऐसे ही जन्म
तीर्थकर : मुक्ति-पथ का प्रस्तोता
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