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________________ ६. निद्रा = सुप्त चेतना । शोक । १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. प्रलीक = झूठ | चौर्य = चोरी। मत्सर = डाह् । भय । हिंसा । राग = प्रासक्ति | क्रीड़ा - खेल-तमाशा, नाच-रंग | हास्य = हँसी-मजाक ! जब तक मनुष्य इन अठारह दोषों से सर्वथा मुक्त नहीं होता, तब तक वह आध्यात्मिक शुद्धि के पूर्ण विकास के पद पर नहीं पहुँच सकता । ज्यों ही वह अठारह दोषों से मुक्त होता है, त्यों ही आत्म शुद्धि के महान् ऊँचे शिखर पर पहुँच जाता है और केवलज्ञान एवं केवलदर्शन के द्वारा समस्त विश्व का ज्ञाता द्रष्टा बन जाता है। तीर्थंकर भगवान् उक्त अठारह दोषों से सर्वथा रहित होते हैं। एक भी दोष, उनके जीवन में नहीं रहता । तीर्थंकर ईश्वरीय अवतार नहीं : जैन तीर्थंकरों के सम्बन्ध में कुछ लोग बहुत भ्रान्त धारणाएँ रखते हैं। उनका कहना है कि जैन अपने तीर्थंकरों को ईश्वर का अवतार मानते हैं। मैं उन बन्धुत्रों से कहूँगा कि भूल में हैं । जैन धर्म ईश्वरवादी नहीं है । वह संसार के कर्ता, धर्ता और संहर्ता किसी एक ईश्वर को नहीं मानता। उसकी यह मान्यता नहीं है कि हजारों भुजाओं वाला, दुष्टों का नाश करने वाला, भक्तों का पालन करने वाला, सर्वथा परोक्ष कोई एक ईश्वर है । और वह यथासमय वस्त संसार पर दयाभाव लाकर गो-लोक, सत्य-लोक या वैकुण्ठ धाम श्रादि से दौड़कर संसार में आता है, किसी के यहाँ जन्म लेता है और फिर लीला दिखाकर वापस लौट जाता है । अथवा जहाँ कहीं भी है, वहीं से बैठा हुआ संसार - घटिका की सूई फेर देता है और मनचाहा बजा देता है "भ्रामयत् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया । " -- गीता, १८ /६१ जैन धर्म में मनुष्य से बढ़कर और कोई दूसरा महान् प्राणी नहीं है । जैन-शास्त्रों में आप जहाँ कहीं भी देखेंगे, मनुष्यों को सम्बोधन करते हुए 'देवाणुप्पिय' शब्द का प्रयोग पाएँगे । उक्त सम्बोधन का यह भावार्थ है कि 'देव संसार' भी मनुष्य के आगे तुच्छ है । वह भी मनुष्य के प्रति प्रेम, श्रद्धा एवं आदर का भाव रखता है। मनुष्य असीम तथा अनन्त शक्तियों भंडार है । वह दूसरे शब्दों में स्वयंसिद्ध ईश्वर है, परन्तु संसार की मोह-माया के कारण कर्म-मल से आच्छादित है, अतः बादलों से ढँका हुआ सूर्य है, जो सम्यक् रूप से अपना प्रकाश नहीं प्रसारित कर सकता । परन्तु ज्यों ही वह होश में आता है, अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानता है, दुर्गुणों को त्यागकर सद्गुणों को अपनाता है; तो धीरे-धीरे निर्मल, शुद्ध एवं स्वच्छ होता चला जाता है, एक दिन जगमगाती हुई अनंत शक्तियों का प्रकाश प्राप्त कर मानवता के पूर्ण विकास की कोटि पर पहुँच जाता है और सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अर्हन्त, परमात्मा, शुद्ध, बुद्ध बन जाता है । तदनन्तर जीवन्मुक्त दशा में संसार को सत्य का प्रकाश देता है और अन्त में निर्वाण पाकर मोक्ष -दशा में सदा के लिए अमर - अविनाशी - जैन- परिभाषा में सिद्ध हो जाता है । तीर्थंकर : मुक्ति पथ का प्रस्तोता Jain Education International For Private & Personal Use Only २६ www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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