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तो आत्मा अपने निरंजन, निर्विकार शुद्ध स्वरूप में आ जाएगी। मन, इन्द्रिय और शरीर के घेरे को तोड़कर, जो अपना शुद्ध लक्षण है---ज्ञानमय-स्वरूप है, उस में सदा-सर्वदा के लिए विराजमान हो जाएगी। तब वह इस संसार की दास नहीं, स्वामी होगी और होगी, चिन्मय प्रकाश-पुञ्ज !
----"अणंत नाणी य अणंत दंसी"
स्वपरविवेको हि दर्शनम् । --स्व प्रौर पर का विवेक-बोध ही दर्शन है।
चिदचिद् भेदविज्ञानं ही दर्शनम् । .....जड़ और चेतन का भेद-विज्ञान ही दर्शन है।
--उपाध्याय अमरमुनि
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