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मुझे इस प्रसंग पर एक बात याद आ रही है। एक बार जोधपुर के राजा मानसिंहजी एक दिन अपने पर्वतीय किले की ऊँची बुर्ज पर बैठे थे, पास में राज पुरोहित भी थे। दोनों दूर-दूर तक के दृश्य निहार रहे थे। राजा ने नीचे देखा, तो बहुत ही भयानक अन्ध-ग की तरह तलहटी दीखने लगी। राजा ने मजाक में पूछा - "पुरोहित जी ! अगर मैं यहाँ से गिर जाऊँ तो मेरा धमाका कितनी दूर तक सुनाई देगा, और यदि श्राप गिर जाएँ, तो आपका धमाका कितनी दूर जाएगा !
पुरोहित ने हाथ जोड़कर कहा - "महाराज ! भगवान् न करें, ऐसा कभी हो । किन्तु, बात यह है कि यदि मैं गिर जाऊँ, तो मेरा धमाका क्या होगा ! ज्यादा-से-ज्यादा मेरी हवेली तक सुनाई देगा । बाल-बच्चे अनाथ हो जाएँगे बस, वहाँ तक ही रोना-चीखना और शोरगुल हो पाएगा, आगे कुछ नहीं । परन्तु, यदि आप गिर गए, तो उसका धमाका तो पूरे देश में सुनाई देगा। रियासत श्रनाथ हो जाएगी, देश भर में शोक और दुःख छा जाएगा ।"
इस दृष्टान्त से यह स्पष्ट होता है--मनुष्य जितनी ऊँचाई पर चढ़ता है, उसकी गिरावट उतनी ही भयंकर होती है। यदि ऊपर ही ऊपर चढ़ता जाता है, तो परम पवित्र स्थिति में -- जिसे हम मोक्ष कहते हैं, पहुँच जाता है। और यदि गिरना शुरू होता है, तो गिरता - गिरता पतित-से पतित दशा में पहुँच जाता है, घोरातिघोर सातवीं नरक तक भी चला जाता है ।
मनुष्य का जीवन एक क्षुद्र कुत्र या तलैया नहीं है, वह एक महासागर की तरह विशाल और व्यापक है। मनुष्य समाज में अकेला नहीं है, परिवार उसके साथ है, समाज से उसका सम्बन्ध है, देश का वह एक नागरिक है, और इस पूरी मानव सृष्टि एवं प्राणिजगत् का वह एक सदस्य है। उसकी हलचल का क्रिया-प्रतिक्रिया का असर सिर्फ उसके जीवन में ही नहीं, पूरी मानव जाति और समूचे प्राणिजगत् पर होता है। इसलिए उसका जीवन व्यष्टिगत नहीं, बल्कि समष्टिगत है ।
जितने भी शास्त्र हैं - चाहे वे भगवान् महावीर के कहे हुए आगम हैं, या बुद्ध के कहे हुए पिटक हैं, या वेद-उपनिषद्, कुरान, बाईबिल हैं, आखिर वे किसके लिए हैं ? क्या पशु-पक्षियों को उपदेश सुनाने के लिए हैं ? क्या कीड़े-मकोड़ों को सद्द्बोध देने के लिए हैं ? नरक के जीवों के लिए भी नहीं हैं । नारक जीवों की कहाँ भूमिका है उपदेश पाने की ? वे विचारे तो रात-दिन यातनाओं से तड़प रहे हैं, हाहाकार कर रहे हैं । और स्वर्ग के देवों के लिए भी तो उनका क्या उपयोग है? कहाँ है उन देवताओं को फुर्सत, और फुर्सत भी है, तो उपदेश सुनकर ग्रहण करने की योग्यता कहाँ है उनमें ? रात-दिन भोग-विलास और ऐश्वर्य में डुबे रहने के कारण देवता भी अपने आप को इन्द्रियों की दासता से मुक्त नहीं कर सकते । तो, आाखिर ये सब किसके लिए बने हैं। मनुष्य के लिए ही तो ! मानव की श्रात्मा को प्रबुद्ध करने के लिए ही तो, सब शास्त्रों ने वह ज्योति जलाई है, वह उद्घोष किया है, जिसे देख और सुनकर उस का सुप्त ईश्वरत्व जाग सके ।
दुःख का कारण :
संसार में जितने भी कष्ट हैं, संकट और आपत्तियाँ हैं, उलझनें और संघर्ष हैं, उनकी गहराई में जा कर यदि हम ठीक-ठीक विश्लेषण करें, तो यही पता चलेगा कि जीवन में जो भी दुःख हैं वे पूर्णतः मानवीय हैं, मनुष्य के द्वारा मनुष्य पर लादे गए हैं। हमारे जो पारस्परिक संघर्ष हैं, उनके मूल में हमारा वैयक्तिक स्वार्थ निहित होता है, जब स्वार्थ टकराता है, तो संघर्ष की चिनगारियाँ उछलने लगती हैं। जब प्रलोभन या अहंकार पर चोट पड़ती है, तो वह फुंकार उठता है, परस्पर वैमनस्य और विद्वेष भड़क उठता है । इस प्रकार एक व्यक्ति से दूसरा व्यक्ति, एक समाज से दूसरा समाज, एक सम्प्रदाय से दूसरा सम्प्रदाय और एक राष्ट्र से दूसरा राष्ट्र अपने स्वार्थ और अहंकार के
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पक्षा समिक्er धम्मं
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