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________________ " तुम्हारे सामने यदि कोई सम्राट् आता है, जिसके पीछे लाखों-करोड़ों सेवकों का दल खड़ा है, धन-वैभव का अम्बार लगा है, स्वर्ण सिंहासन और शासन-शक्ति उसके पीछे है, किन्तु यदि उसे उपदेश देने का प्रसंग प्रांता है, तो उसके धन और शक्ति पर दृष्टि मत डालो, उसके सोने के महलों की तरफ नजर तक न उठाओ, बल्कि उसे एक भव्य आत्मा समझकर उपदेश करो। और तुम यह देखो कि उसकी सुप्त आत्मा जागृत हो, उसमें विवेक की ज्योति प्रज्वलित हो, बस यही ध्येय रखकर उपदेश करो और निर्भीक होकर करो ।" "और, यदि तुम्हारे समक्ष कोई दरिद्र भिखारी गली-कूचों में ठोकरें खाने वाला, श्वपाक या प्रन्त्यज चाण्डाल, जो संसार की नजरों में नीच कहा जाता है, वह भी आ जाए, तो, जिस प्रकार से तथा जिस भाव से तुमने सम्राट् को उपदेश दिया है, उसी प्रकार से और उसी भाव से उस तुच्छ और साधारण श्रेणी के व्यक्ति को भी देखो, और उसे उपदेश दो, उसके बाहरी रूप और जाति पर मत उलझो। यह देखो कि वह भी एक भव्य श्रात्मा है और उसकी आत्मा को जागृति का सन्देश देना हमारा धर्म है आप देखेंगे कि जैन-धर्म का स्वर कितनी ऊँचाई तक पहुँच गया है। साधारणजनता जिस प्रकार एक सम्राट् और एक श्रेष्ठी के प्रति सम्मान और सभ्य भाषा का प्रयोग करती है, एक कंगाल - भिखारी और एक अन्त्यज के प्रति भी जैन-धर्म उसी भाषा और उसी सभ्यता का पालन करने की बात कहता है । जितनी दृढ़ता और निर्भयता मन में होगी, सत्य का स्वर भी उतना ही स्पष्ट एवं मुखर होगा । अतः भिखारी और दरिद्र के सामने तुम जितने निर्भय और स्पष्टवादी होकर सत्य को प्रकट करते हो, उतने ही निर्भय और दृढ़ बनकर एक सम्राट् को भी सत्य का सन्देश सुनाओ। तुम्हारे स्पष्ट और सुदृढ़ सत्य की अपनी तेजस्विता स्वर्ण की चमक के सामने कम न होने पाए। सोने के दबकत से उसका मुंह बन्द न हो जाए जैसा कि ईशोपनिषद् में कहा गया है - "हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं" सोने के पात्र से सत्य का मुंह ढका हुआ है ।" सम्राट् और तुम्हारे बीच में सम्राट् के धन और वैभव, शक्ति और साम्राज्य का विचार खड़ा मत होने दो। और, न दरिद्र और तुम्हारे बीच में दरिद्र की नगण्यता एवं तुच्छता का क्षुद्र विचार ही खड़ा हो। दोनों की आत्मा को समान समझो । अतः दोनों को समान भाव से धर्म का सन्देश दो, निर्भय और निरपेक्ष होकर, निष्काम और तटस्थ होकर । जाति नहीं, चरित्र ऊंचा है : : जैनधर्म शरीरवादियों का धर्म नहीं है । यदि श्रष्टावक्र ऋषि के शब्दों में कहा जाए, तो वह 'चर्मवादी' धर्म नहीं है। वह शरीर, जाति या वंश के भौतिक आधार पर चलने वाला 'पोला धर्म' नहीं है । अध्यात्म की ठोस भूमिका पर खड़ा है। वह यह नहीं देखता है कि कौन भंगी है, कौन चमार है और कौन आज किस कर्म तथा किस व्यवसाय से जुड़ा हुआ है ? वह तो व्यक्ति के चरित्र को देखता है, सत्य की जागृति एवं जिज्ञासा को देखता और देखता है उसकी प्रात्मिक पवित्रता को । भारत का मध्ययुगीन इतिहास, जब हम देखते हैं, तो मन पीड़ा से श्राक्रांत हो जाता है । और, हमारे धर्म एवं अध्यात्म के प्रचारकों के चिन्तन के समक्ष एक प्रश्न चिन्ह लग जाता है कि वे क्या सोचते थे ? और कैसा सोचते थे ? प्राणिमात्र में ब्रह्म का प्रतिfara देखने वाले भी श्रेष्ठी और दरिद्र की श्रात्मा को, ब्राह्मण और चाण्डाल की श्रात्मा को एक दृष्टि से नहीं देख सके। उन्होंने हर वर्ग के बीच भेद और घृणा की दीवारें खड़ी कर दी। शूद्र की छाया पड़ने से वे अपने को अपवित्र समझ बैठते थे। इतनी नाजुक थी, उनकी पवित्रता कि किसी की छाया मात्र से वह दूषित हो उठती थी। कोई भी शूद्र धर्मशास्त्र का अध्ययन नहीं कर सकता था । क्या धर्मशास्त्र इतने पोचे थे कि शूद्र के छूते ही वे भ्रष्ट हो जाते ? जरा सोचें, तो लगेगा कि कैसी भ्रान्त धारणाएँ थीं कि जो शास्त्र ज्ञान का आधार माना जाता है, जिससे प्रवाहित होने वाली ज्ञान की पावन धारा अन्तरंग ४०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only पता समिक्ee धम्मं www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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