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________________ जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ : हमारा पुरुषार्थ सबसे पहले अपने स्वरूप को जानने में लगना चाहिए। उपनिषद्-. काल के एक प्राचार्य ने अपने शिष्य से पूछा था कि संसार का वह कौनसा तत्त्व है, जिस एक के जान लेने पर सब-कुछ जाना जा सकता है--'एकस्मिन विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ।' शिष्य ने गुरु से ही पूछ लिया भगवन-पाप ही बतलाइए, वह कौनसा तत्त्व है, जिस एक के जान लेने पर सब-कुछ जान लिया जाता है ? गुरु ने शिष्य में जिज्ञासा पैदा की और फिर उसका समाधान भी दिया। चूंकि जिज्ञासा का यदि समाधान न हो, तो वह फिर शंका का रूप धारण कर लेती है। गुरु ने शिष्य का समाधान किया-'आत्मनि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति'--एक आत्मा को जान लेने पर सब-कुछ जान लिया जाता है। विश्व की अनन्त वस्तुओं का एक-एक करके यदि ज्ञान प्राप्त किया जाए, तो अनन्तकाल तक भटकते रहने पर भी सब ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकेगा। किन्तु उस एक परम तत्त्व को जान लेने पर सब ज्ञान प्राप्त हो जाता है। 'आचारांग' सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर ने इस सम्बन्ध में बहुत ही उदात्त सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है "जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ।" -१-३-४ जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है। इस कथन का अभिप्राय यह है कि जिसने एक भी पदार्थ का पूर्ण ज्ञान कर लिया, उसने समस्त विश्व को जान लिया। क्योंकि जो किसी भी एक द्रव्य की अनन्त पर्यायों को पूर्ण रूप में जान लेता है, वह अनन्त ज्ञानी होगा। अनंत ज्ञानी में सब-कुछ को जानने की शक्ति है। किसी भी एक पदार्थ के अनन्त धर्मों और उसकी अनन्त पर्यायों को जानने का अर्थ होता है--उसने सम्पूर्ण पदार्थ को पूर्ण रूप से जान लिया। किसी भी पदार्थ को पूर्ण रूप से जानने का सामर्थ्य, केवलज्ञान के अतिरिक्त किसी अन्य ज्ञान में नहीं है। केवलज्ञान, ज्ञान का पूर्ण विकास है। वह असीम है, अनन्त है। अतः उसमें अनन्त को जानने की शक्ति है। जैन-दर्शन के अनुसार संख्या की दृष्टि से पुद्गल भी अनन्त हैं और जीव भी अनन्त है। किन्तु, एक द्रव्य को भी तद्गत अनन्त गुण-धर्मों की अपेक्षा से अनन्त माना गया है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने आप में अनन्त है। क्योंकि प्रत्येक पदार्थ में अनन्त गुण-धर्म होते हैं। और एक-एक गुण-धर्म की अनन्त पर्याय होती है। प्रश्न यह है, एक साथ अनन्त पदार्थों का ज्ञान कैसे होता है ? अनन्त भूतकाल के, अनन्त भविष्य काल के और अनन्त वर्तमान काल के पदार्थों का ज्ञान कैसे होता है ? और क्या, एक-एक पदार्थ में अनन्त-अनन्त गुण विद्यमान हैं और एक-एक गुण की अनन्त-अनन्त पर्याय हैं ? अनन्त पर्याय वर्तमान की, अनन्त पर्याय भूतकाल की और अनन्त पर्याय भविष्य की है ? एक पदार्थ की अनन्त पर्याय कैसे होती है ? इसको समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए--आपके सामने एक वृक्ष है और उस वृक्ष में हजारों हजार पत्ते हैं। उनमें से एक पत्ता लीजिए। जिस पत्ते को आप इस वर्तमान क्षण में देख रहे हैं, क्या भूतकाल में वह वैसा ही था और क्या भविष्य में भी वह वैसा ही रहेगा? यदि आपको दर्शन-शास्त्र का थोडा-सा भी परिज्ञान है, तो आप यह कदापि नहीं कह सकते कि यह पत्ता जिसे आप वर्तमान क्षण में प्रत्यक्ष देख रहे हैं, भूतकाल में भी ऐसा ही था और भविष्यकाल में भी ऐसा ही रहेगा। एक पत्ता जब जन्म लेता है, तब उसका रूप और वर्ण कैसा होता है ? उस समय उसके रूप और वर्ण को ताम्र कहा जाता है। फिर धीरे-धीरे वह हरा हो जाता है और फिर धीरे-धीरे वह एक दिन पीला पड़ जाता है। ताम्रवर्ण, हरितवर्ण और पीतवर्ण एक ही पत्ते की ये तीन अवस्थाएँ बहुत चेतना का विराट रूप Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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