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________________ एक विशेष आत्मीयता के रस से प्रोत-प्रोत होता था। वहाँ की नीरव शान्ति, स्वच्छ और शान्त वातावरण उच्च संकल्पों की प्रेरणा देता हुआ-सा लक्षित होता था । वहाँ की हवा में स्निग्धता और संस्कारिता के परमाणु प्रसारित रहते थे। छात्र परिवार से और समाज से 'दूर रहकर एक नई सृष्टि में जीना प्रारम्भ करता था । जहाँ किसी प्रकार का छल, छद्म, हिंसा, सत्य, चोरी और अन्य विकारों का दूषित एवं घृणित वायुमण्डल नहीं था । भिन्नभिन्न जातियों, समाजों और संस्कारों के विद्यार्थी एक साथ रहते थे, उससे उनमें जातीय सौहार्द, प्रेम और सौम्य संस्कारों की एकात्मकता के अंकुर प्रस्फुटित होते थे । गुरु और शिष्य का निकट सम्पर्क दोनों में आत्मीय एकरसता के सूत्र को जोड़ने वाला होता था । गुरु का अर्थ, वहाँ केवल अध्ययन कराने वाले शिक्षकों से हीं नहीं था, अपितु गुरु उस काल का पूर्ण व्यक्तित्व होता था— जो शिष्य के जीवन की समस्त जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर लेकर चलता था । उसके रहन-सहन, खान-पान और प्रत्येक व्यवहार में से छनते हुए उसके चरित्र का निरीक्षण करता था। उसके जीवन में वह उच्च संस्कार जगाता था और ज्ञान का आलोक प्रदान करता था। इस प्रकार छात्र गुरुकुल में सिर्फ ज्ञान ही नहीं पाता था, बल्कि सम्पूर्ण जीवन पाता था। संस्कार, व्यवहार, सामाजिकता के नियम, कर्तव्य का बोध और विषय वस्तु का ज्ञान --- इस प्रकार जीवन का सर्वागीण अध्ययन एवं शिक्षण गुरुकुल पद्धति का आदर्श था । उपनिषद् में एक संदर्भ है । गुरु शिष्य को दीक्षान्त सन्देश देते हुए कहते हैं-" सत्यं वद ! धर्मं चर! स्वाध्यायान्माप्रमदः यानि अस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपासित्वयानि, नो इतराणि " शिष्य अपना विद्याध्ययन पूर्ण करके जब गुरु से विदा माँगता है, तब गुरु दीक्षान्त सन्देश देते हैं कि - " तुम सत्य बोलना, धर्म का आचरण करना, जो अध्ययन किया है, उसके स्वाध्याय-चिन्तन में कभी लापरवाह मत होना और जीवन में कर्तव्य करते हुए जब कभी कर्तव्य कर्तव्य का प्रश्न तुम्हारे सामने श्राये, सदाचार और अनाचार की शंका उपस्थित हो, तो जो हमने सद् श्राचरण किये हैं, जो हमारा सुचरित्र है, उसी के अनुसार तुम प्राचरण करते जाना, पर अपने कर्तव्य से कभी मत भटकना ।" आप देखेंगे कि इस दीक्षान्त सन्देश में गुरु शिष्य के प्रति हृदय का कितना स्नेह उँडेल रहा है, उसकी वाणी में अन्तरात्मा का कितना सहज वात्सल्य छलक रहा है, उच्च प्रेरणा और महान् शुभसंकल्पों का कितना बड़ा संकेत है, इस सन्देश में । गुरु शिष्य में अपने जीवन का प्रतिबिम्ब देखना चाहता है, इसलिए वह उसे सम्बोधित करता है कि--तुम हमारे सदाचरण के अनुसार अपने प्रचार का निश्चय करना । शिष्य का जीवन पवित्र बनाने के लिए गुरु स्वयं अपना जीवन पवित्र रखते हैं और उसे एक आदर्श की तरह शिष्य के समक्ष उपस्थित करते हैं । जीवन की इस निश्च्छलता और पवित्रता के अमिट संस्कार जिन शिष्यों के जीवन में उद्भासित होते हैं, वे शिष्य गुरुकुल से निकलकर गृहस्थ जीवन में आते हैं, तो एक सच्चे गृहस्थ, सुयोग्य नागरिक और राष्ट्रीय पुरुष के रूप में उपस्थित होते हैं । उनका जीवन समाज और राष्ट्र का एक आदर्श जीवन होता है । प्राचीन गुरुकुल के सम्बन्ध में यदि एक ही बात हम कहें, तो वह यह है कि गुरुकुल हमारे विद्या और ज्ञान के ही केन्द्र नहीं थे, बल्कि सच्चे मानव और सुयोग्य नागरिकों का निर्माण करने वाले केन्द्र थे । शिक्षा का माध्यम: समय और स्थितियों ने ग्राज गुरुकुल की पावन परम्परा को छिन्न-भिन्न कर दिया । अध्ययन-अध्यापन की पद्धति बदलती गई, विषय बदलते गए और आज तो यह स्थिति है कि अध्ययन केन्द्र एक मेले की, समारोह की संज्ञा ले रहे हैं । और गुरु अपने आपको नौकर समझने लग गए हैं। शिक्षणकेन्द्र विद्यार्थियों के ऐसे जमघट बन गए हैं, जहाँ वे कुछ समय के लिए आते हैं, साथी- दोस्तों से दो-चार गपशप कर लेते हैं, रजिस्टर में उप ३८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ar धम्मं www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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