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________________ आज के छात्र और फैशन : आज के अधिकांश विद्यार्थी गरीबी, हाहाकार और रुदन के बन्धनों में पड़े हैं, फिर भी फैशन की फाँसी उनके गले से नहीं छूटती। में विद्यार्थियों से पूछता हूँ, क्या तुम्हारी विद्या इन बन्धनों के कारागार से मुक्त होने को उद्यत है ? क्या तुम्हारी शिक्षा इन बन्धनों की दीवारों को तोड़ने को तैयार है ? यदि तुम अपने बन्धनों को ही तोड़ने में समर्थ नहीं हो, तो अपने देश, जाति और समाज के बन्धनों की दीवारों को तोड़ने में कैसे समर्थ हो सकोगे? पहले अपने जीवन के बन्धनों को तोड़ने का सामर्थ्य प्राप्त करो, तभी राष्ट्र और समाज के बन्धनों को काटने के लिए शक्तिमान हो सकोगे। और, यदि तुम्हारी शिक्षा इन बन्धनों को तोड़ने में समर्थ नहीं है, तो समझ लो कि वह अभी अधूरी है, अतः उसका उचित फल तुम्हें नहीं मिलने का। शिक्षा और कुशिक्षाः यदि तुमने अध्ययन करके किसी भद्र व्यक्ति की आँखों में धूल झोंकने की चतुराई, ठगने की कला और धोखा देने की विद्या ही सीखी है, तो कहना चाहिए कि तुमने शिक्षा नहीं, कुशिक्षा ही पाई है और स्मरण रखना चाहिए कि कुशिक्षा, अशिक्षा से भी अधिक भयानक होती है। कभी-कभी पढ़े-लिखे आदमी अनपढ़ एवं प्रशिक्षितों से भी कहीं ज्यादा मक्कारियाँ सीख लेते हैं। स्पष्ट है, यह ऐसी शिक्षा, शिक्षा नहीं है, ऐसी कला, कला नहीं है, वह तो धोखेबाजी है, प्रात्म-वंचना है। और, ऐसी आत्म-वंचना है, जो जीवन को बर्बाद कर देने में सहज समर्थ है। शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य : शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य क्या है ? शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य प्रज्ञान को दूर करना है। मनुष्य में जो शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियाँ दबी पड़ी है, उन्हें प्रकाश में लाना ही शिक्षा का यथार्थ उद्देश्य है। परन्तु इस उद्देश्य की पूर्ति तब होती है, जब शिक्षा के फलस्वरूप जीवन में सुसंस्कार उत्पन्न होते हैं। केवल शक्ति के विकास में शिक्षा की सफलता नहीं है, अपितु शक्तियाँ विकसित होकर जब जीवन के सुन्दर निर्माण में प्रयुक्त होती है, तभी शिक्षा सफल होती है । बहुत-से लोग यह समझ बैठे हैं कि मस्तिष्क की शक्तियों का विकसित हो जाना ही शिक्षा का परम उद्देश्य है, परन्त यह समझ सर्वथा अधरी है। मनुष्य के मस्तिष्क के साथ हृदय का भी विकास होना चाहिए अर्थात् मनुष्य का सर्वांगीण विकास होना चाहिए और वह विकास अपनी और अपने समाज एवं देश की भलाई के काम आना चाहिए, तभी शिक्षा सार्थक हो सकती है, अन्यथा नहीं। अध्ययन-काल की निष्ठा : जो छात्र प्रारम्भ से ही समाज और देश के हित का पूरा ध्यान रखता है, वही अपने भविष्य का सुन्दर निर्माण कर सकता है, वही आगे चलकर देश और समाज का रत्न बन सकता है। ऐसा करने पर बड़ी-से-बड़ी उपाधियाँ उनके चरणों में आकर स्वयं लौटने लगती है। प्रतिष्ठा उनके सामने स्वयं हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती है। सफलताएँ उनके चरण चूमती हैं। विद्याध्ययन काल में विद्यार्थी की लगन एवं निष्ठा ही भविष्य में उसकी विद्या को सुफलदायिनी बनाती है। विद्यार्थी जीवन : एक नव-अंकुर : विद्यार्थी जीवन एक उगता हुआ नव-अंकुर है। उसे प्रारम्भ से ही सार-संभाल कर रखा जाए, तो वह पूर्ण विकसित हो सकता है। बड़ा होने पर उसे सुन्दर बनाना, बहुत मुश्किल हो जाता है। आपने देखा होगा-घड़ा जब तक कच्चा होता है, तब तक कुम्हार ३७४ पन्ना समिक्खए पम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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