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________________ मनुष्य, एक विराट शक्ति केन्द्र है । वह केवल हड्डियों का ढाँचा मात्र नहीं है, जो सिर को ऊपर उठाए दो परों के बल पर खड़ा होनेवाला कोई बानर हो । वह केवल शारीरिक ऊँचाई ही नहीं रखता, उसकी मानसिक उच्चता भी महान् है, जो उसे प्राणि-जगत् में श्रेष्ठता प्रदान करती है । मानव की विकास- कालीन बाह्य परिस्थितियाँ : आप देखें और सोचें, कर्मभूमि के प्रारम्भ में, जब मनुष्य जाति का विकास प्रारम्भ हुआ था, तब मनुष्य को क्या प्राप्त था ? भगवान् ऋषभदेव के समय से पूर्व उसको केवल बड़े-बड़े पर्वत, मैदान, लम्बी-चौड़ी पृथ्वी, जंगल और नदी-नाले ही तो मिले थे । मकान के नाम पर एक झोंपड़ी भी नहीं थी और न वस्त्र के नाम पर एक धागा ही था । रोटी पकाने के लिए न अन्न का एक दाना था, न बर्तन थे, न चूल्हा था, न चक्की थी। कुछ भी तो नहीं था। मतलब यह कि एक ओर मनुष्य खड़ा था और दूसरी ओर थी प्रकृति, जो मौन और चुप थी । पृथ्वी और आकाश, दोनों मौन थे । उसके बाद भगवान् ऋषभदेव के नेतृत्व में मानव की विकास-यात्रा शुरू हुई, तो एक बिराद् संसार खड़ा हुआ और नगर बस गए। मनुष्य ने प्रकृति पर नियन्त्रण कायम किया और उत्पादन की ओर गति की । फलतः मनुष्य ने स्वयं खाया और सारे जग को खिलाया । स्वयं का तन ढंकने के साथ, दूसरों के तन भी ढांके । और उसने केवल इसी दुनिया की ही तैयारी नहीं की, प्रत्युत उसके आगे का भी मार्ग तय किया । अनन्त अनन्त भूत और भविष्य की बातें प्रकाशमान हो गईं और विश्व का विराट् चिन्तन हमारे सामने प्रस्तुत हो गया। वह समय युगलियों का था। वह ऐसा काल था, जब मनुष्य पृथ्वी पर पशुओं की भाँति घूम रहा था । उसके मन में इस दुनिया को तथा अगली दुनिया को समझने तक का कोई प्रश्न न था । फिर यह सब कहाँ से आ गया ? स्पष्ट है, इसके मूल में मनुष्य की प्रगतिशील भावना ही काम कर रही थी । उसने युगों से प्रकृति के साथ संघर्ष किया और एक दिन उसने प्रकृति और पृथ्वी पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया, एक नई सृष्टि बना कर खड़ी कर दी । मनुष्य को बाहर की प्रकृति से ही नहीं, अन्दर की प्रकृति से भी लड़ना पड़ा अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह आदि की अपनी वासनात्रों से भी खूब लड़ना पड़ा। उसने अपने हृदय को खोल कर देख लिया और समझ लिया कि यहाँ कौन-सा हमारे कल्याण का मार्ग है और कौन-सा कल्याण का । हमारे व्याक्तिगत जीवन में तथा राष्ट्र के जीवन में क्या उपयोगी है, और क्या अनुपयोगी ? मनुष्य ने एक तरफ प्रकृति का विश्लेषण किया और दूसरी तरफ अपने अन्दर के जीवन का विश्लेषण किया कि हमारे भीतर कहाँ नरक बन रहे हैं और कहाँ स्वर्ग बन रहे हैं ? कहाँ बन्धन खुल रहे हैं और कहाँ बँध रहे हैं ? हम किस रूप में संसार में आए हैं, और अब हमें लौटना किस रूप में है ? मानव मस्तिष्क : ज्ञान-विज्ञान का केन्द्र : इस प्रकार बहिर्जगत और अन्तर्जगत् का जो चिन्तन मनुष्य के पास आया, वह सब मनुष्य के मस्तिष्क से ही आया है, मनुष्य के मस्तिष्क से ही ज्ञान की सारी धाराएँ फूटी हैं । यह अलंकार, काव्य, दर्शनशास्त्र और व्याकरण शास्त्र प्रभृति नाना विषय मानवमस्तिष्क से ही निकले हैं। आज हम ज्ञान और विज्ञान का जो भी विकास देखते हैं, सभी कुछ मनुष्य के मस्तिष्क की ही देन है । मनुष्य अपने मस्तिष्क पर भी विचार करता है तथा वह यह सोचता और मार्ग खोलता है कि अपने इस प्राप्त मानव-जीवन का उपयोग क्या है ? इसको विश्व से कितना कुछ पाना है और विश्व को कितना कुछ देना है ? ३७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only पता समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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