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________________ इसके उत्तर में गुरु कहता है--"यदात्मको भगवान्।" शिष्य पुनः पूछता है---"किमात्माको भगवान् ?" गुरु समाधान करता है--"ज्ञानात्मको भगवान् ।' वेदान्त-दर्शन के इन प्रश्नों से सष्ट हो जाता है--वेदान्त प्रात्मा को ज्ञान-स्वरूप मानता है। वेदान्त के अनुसार, ज्ञान आत्मा का निज स्वरूप ही है। जैन-दर्शन में प्रात्मा के लक्षण और स्वरूप के सम्बन्ध में अत्यन्त सूक्ष्म, गंभीर और व्यापक विचार किया गया है। आत्मा जैन-दर्शन का मूल केन्द्र-बिन्दु रहा है। जैन-दर्शन में अभिव्यक्त नव पदार्थ, सप्त तत्त्व, षड् द्रव्य और पञ्च अस्तिकाय में चैतन्य प्रात्मा ही मुख्य है। आगम-युग से ले कर आज के तर्क-युग तक जैनाचार्यों ने प्रात्मा का विश्लेषण प्रधान रूप से किया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द के अध्यात्म-प्रन्थ ता प्रधानतया यात्म-स्वरूप का ही प्रतिपादन करते हैं। तर्क-या के जैनाचार्य भी, तर्कों के विकट वन में रहते हुए भी प्रात्मा को भूले नहीं हैं। यदि जैन-दर्शन में से प्रात्मा के वर्णन को निकाल दिया जाए, तो जैनदर्शन में अन्य कुछ भी शेष नहीं बचेगा। इस प्रकार जैन-दर्शन ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति प्रात्मस्वरूप के प्रतिपादन में लगा दी है। अतः जैन-दर्शन और जैन-संस्कृति का प्रधान सिद्धान्त है-प्रात्म स्वरूप का प्रतिपादन और आत्म-स्वरूप का विवेचन ।। आत्म-तत्त्व, ज्ञान-स्वरूप है। कुछ प्राचार्यों ने कहा है, कि आत्मा ज्ञानवान है। इसका अर्थ यह रहा कि, प्रात्मा अलग है और ज्ञान अलग है। अतः प्रात्मा ज्ञान-स्वरूप नहीं, ज्ञानवान है। इस कथन में दैतभाव की प्रतीति स्पष्ट है। जिस प्रकार आप कहते हैं कि यह व्यक्ति धनवान अर्थात् धनवाला है, तो इसका अर्थ यह हुग्रा-~व्यक्ति अलग है और धन अलग है। वह व्यक्ति धन को पाने से धनवाला हो गया और जब उसके पास धन नहीं रहेगा, तो धनबाला भी नहीं रहेगा। इस कथन में द्वैत-दृष्टि सष्ट रूप से झलकती है। जैन-दर्शन की भाषा में इस द्वैत-दृष्टि को व्यवहार नय कहा जाता है। निश्चय नय की भाषा में आत्मा ज्ञानवान है, ऐसा नहीं कहा जाता है, वहाँ तो यह कहा जाता है कि प्रात्मा ज्ञायकस्वभाव है, प्रात्मा ज्ञाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि---ज्ञान ही पात्मा है। जो कुछ ज्ञान है, त्मिा हैमोर जो कूछात्मा है, वह ज्ञान ही है। यह शुद्ध निश्चय नय का कथन है। शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि में आत्मा को ज्ञानवान नहीं कहा जाता, बल्कि ज्ञान-स्वरूप ही कहा जाता है। भगवान महावीर ने 'प्राचारांग सूत्र' में स्पष्ट रूप में प्रतिपादित किया है, कि "जे आया से विनाया, जे विनाया से आया।" इसका अभिप्राय यह है, कि जो आत्मा है वही विज्ञान है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा स्वयं ज्ञान-स्वरूप है। ज्ञान के बिना उसकी कोई स्थिति नहीं है। जैन-दर्शन के महान दार्शनिक प्राचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है-- 'आत्मा ज्ञानं, स्वयं ज्ञानं, ज्ञानादन्यत् करोति किम् ?" आत्मा साक्षात् ज्ञान है और ज्ञान ही साक्षात् आत्मा है। आत्मा ज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं करती है। आत्मा और ज्ञान दो नहीं, एक ही है। जब प्रात्मा ज्ञान को ही करती है और ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं करती, तब इसका अर्थ यह होता है कि एक ज्ञान-गुग में ही आत्मा के अन्य समस्त गुणों का समावेश कर लिया गया है। जब आत्मा ज्ञान-स्वरूप है, तब प्रात्मा को निर्मल करने का अर्थ है, ज्ञान को निर्मल करना और ज्ञान को निर्मल करने का अर्थ है, अात्मा को निर्मल करना। शास्त्रों में इसलिए कहा गया है कि मानव ! तू अपने ज्ञान को निर्मल वना, अपने ज्ञान को स्वच्छ बना और जब तेरा ज्ञान निर्मल और स्वच्छ हो जाता है, तब तेरे अन्य समस्त गुण स्वतः ही निर्मल और स्वच्छ हो जाते हैं। ज्ञान को निर्मल बनाने का अर्थ क्या है ? संसार में अनन्त पदार्थ हैं, संसार के उन पदार्थों में चेतन पदार्थ भी हैं और जड़ पदार्थ भी हैं। उन पदार्थों को जैसे तैसे जानना मान ही ज्ञान का काम नहीं है। किसी भी पदार्थ में, किसी भी प्रकार का परिवर्तन करना भी ज्ञान का काम नहीं है। ज्ञान का काम तो केवल इतना ही है कि जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है, उसे उसी रूप में जान ले। कल्पना कीजिए, किसी कमरे में दीपक जला २० पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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