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सुधारना चाहते हैं या ऊपर से ? पेड़ को हरा-भरा और सजीव बनाने के लिए पत्तों पर पानी छिड़क रहे हैं या जड़ में पानी दे रहे हैं? अगर आप पत्तों पर पानी छिड़क कर पेड़ को हरा-भरा बनाना चाहते है, तो आपका उद्देश्य कदापि पूरा होने का नहीं है !
आज तक समाज-सुधार के लिए जो तैयारियाँ हुई हैं, वे ऊपर से सुधार करने की हुई है, अन्दर से सुधारने की नहीं। अन्दर से सुधार करने का अर्थ यह है कि एक व्यक्ति जो चाहता है कि समाज की बुराइयाँ दूर हों, उसे सर्वप्रथम अपने व्यक्तिगत जीवन में से उन बुराइयों को दूर कर देना चाहिए। उसे गलत विचारों, मान्यताओं और त्रुटिपूर्ण व्यवहारों से अपने आपको बचाना चाहिए। यदि वह व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में उन बुराइयों से मुक्त हो जाता है, और उन त्रुटियों को ठुकरा देता है, तो एकदिन वे परिवार में से भी दूर हो जाएँगी और फल-स्वरूप समाज अपने आप सुधर जाएगा।
समाज सुधार की बाधाएँ: ___इसके विपरीत यदि कोई सामाजिक बुराइयों को दूर करने की बात करता है, समाज की रूढ़ियों को समाज के लिए राहु के समान समझता है, और उनसे मुक्ति में ही समाज का कल्याण मानता है, किन्तु उन बुराइयों और रूढ़ियों को न स्वयं ठुकराता है, ठुकराने की हिम्मत भी नहीं करता है, तो इस प्रकार की दुर्बलता से समाज का कल्याण कदापि संभव नहीं है। यह दुर्बल-भावना समाज-सुधार के मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा है। कोई भी सुधार हो, उसका प्रारंभ सब से पहले स्वयं अपने से ही करना चाहिए । समाज सुधार और रोति-रिवाज :
आपके यहाँ विवाह आदि सम्बन्धी जो अनेक रीतियाँ प्राज' प्रचलित हैं, वे किसी जमाने में सोच-विचार कर ही चलाई गई थीं। और जब वे चलाई गई होंगी, उससे पहले संभवतः वे प्रचलित न भी रही हो। संभव है, आज जिन रीति-रिवाजों से आप चिपटे हुए हैं, वे जब प्रचलित किए गए होंगे, तो तत्कालीन पुरातन मनोवृत्ति के लोगों ने नयी चीज समझ कर उनका विरोध ही किया हो, और उन्हें अमान्य भी कर दिया हो। किन्तु तत्कालीन समाज के दूरदृष्टि नायकों ने साहस करके उन्हें अपना लिया हो और फिर वे ही रीति-रिवाज धीरे-धीरे सर्वमान्य हो गए हों। स्पष्ट है, उस समय इनकी बड़ी उपयोगिता रही होगी। परन्तु इधर-उधर के सम्पर्क में आने पर धीरे-धीरे उन रीति-रिवाजों में बहुत-कुछ विकृतियाँ आ गई। समय बदलने पर परिस्थितियों में भारी उलट-फेर हो गया। मुख्यतया इन दो कारणों से ही उस समय के उपयोगी-रीति-रिवाज आज के समाज के लिए अनुपयोगी हो गए हैं। यही कारण है कि उन रीति-रिवाजों का जो हार किसी समय समाज के लिए अलंकार था, वह आज बेड़ी बन गया है। इन बेड़ियों से जकड़ा हुआ समाज उनसे मुक्त होने को आज छटपटा रहा है। और जब कभी उनमें परिवर्तन करने की बात आती है, तो लोग कहते हैं कि पहले समाज उसे मान्य करले, फिर हम भी मान लेंगे, समाज निर्णय करके अपना ले, तो हम भी अपना लेंगे। यह कदापि उपयुक्त तथ्य नहीं है। इस मनःस्थिति से कभी कोई सामाजिक या धार्मिक सुधार संभव ही नहीं है। पूर्वजों के प्रति आस्थाः '. आज जब समाज-सुधार की बात चलती है, तो कितने ही लोग यह कहते पाए जाते हैं कि हमारे पूर्वज क्या मूर्ख थे, जिन्होंने ये रिवाज चलाये ? निस्सन्देह अपने पूर्वजों के प्रति इस प्रकार आस्था का जो भाव उनके अन्दर है, वह स्वाभाविक है। किन्तु ऐसा कहने वालों को अपने पूर्वजों के कार्यों को भी भली-भाँति समझना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि उनके पूर्वज उनकी तरह स्थितिपूजक नहीं थे। उन्होंने परम्परागत रीतिरिवाजों में, अपने समय और अपनी परिस्थितियों के अनुसार सुधार किए थे। उन्होंने
समाज-सुधार की स्वणिम-रेखाएँ
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