SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामर्थ्य और सीमा का विस्तार : -- बुद्ध के अहंकार को विसारने और भुलाने का आखिर क्या तरीका है ?. आप यह पूछ सकते हैं ! मैंने इसका समाधान खोजा है। आपको बताऊँ कि अहंकार कब जागृत होता है ? जब मनुष्य अपनी सामर्थ्य-सीमा को अतिरंजित रूपमें आँकने लगता है । जो है, उससे कहीं अधिक स्वयं को देखता है, वास्तविकता से अधिक लम्बा बना कर अपने को नापता है औरों से अपना बड़ापन अधिक महसूस करता है और यही अहं भावना अहंकार के रूप में प्रस्फुटित होती है । यदि मनुष्य अपने सामर्थ्य को सही रूप में प्राँकने का प्रयत्न करे, वह स्वयं क्या है और कितना उसका अपना सामर्थ्य है, यह सही रूप में जाने, तो शायद कभी अहंकार करने जैसी बुद्धि न जगे । मनुष्य का जीवन कितना क्षुद्र है, और वह उसमें क्या कर सकता है, एक साँस तो इधर-उधर कर नहीं सकता, फिर वह किस बात का अहंकार करे ? साधारण मनुष्य तो क्या चीज है ? भगवान् महावीर जैसे अनन्त शक्ति के धर्ता भी तो आयुष्यको एक क्षण भर आगे बढ़ा नहीं सके । देवराज इन्द्र ने जब उन्हें आयुष्य को - बढ़ाने की प्रार्थना की तो भगवान् ने क्या कहा, मालूम है ? 'न भूयं न भविस्सइ' देवराज ! ऐसा न कभी हुआ और न कभी होगा, संसार की कोई भी महाशक्ति, अधिक तो क्या, अपनी एक साँस भी इधर-उधर नहीं कर सकती । मैं सोचता हूँ, महावीर का यह उत्तर मनुष्य के कर्तृत्व के अहंकार पर सबसे बड़ी चोट है । जो क्षुद्र मनुष्य यह सोचता रहता है कि मैं ऐसा कर लूंगा, वैसा कर लूँगा, वह अपने सामर्थ्य की सीमा से अनजान है। जीवन के हानि-लाभ, जीवन-मरण, सुख-दुःख जितने भी द्वन्द्व हैं, वे उसके अधिकार में नहीं हैं, उसके सामर्थ्य से परे हैं, तो फिर उसमें परिवर्तन करने की बात, क्या मुर्खता नहीं है ? मैं प्रयत्न एवं पुरुषार्थ की अवहेलना नहीं करना चाहता, किन्तु पिछले प्रयत्न से जो भविष्य निश्चित हो गया है, वह तो भाग्य बन गया । प अब जैसा प्रयत्न एवं पुरुषार्थ करेंगे, वैसा ही भाग्य अर्थात् भविष्य बनेगा । भाग्य का निर्माण आपके हाथ में है, किन्तु भाग्य की प्रतिफलित निश्चित रेखा को बदलना आपके हाथ में नहीं है, यह बात भले ही विचित्र लगे, पर ध्रुव सत्य है । इसका सीधा सा अर्थ है कि हम कर्म करने के तो अधिकारी हैं, किन्तु कर्मफल में हस्तक्षेप करने का अधिकार हमें नहीं है। फिर कर्म की वासना से लिप्त क्यों होते हैं, कर्तापन के अहंकार से व्यर्थ ही अपने को धोखा क्यों देते हैं- यह बात समझने जैसी है । भारतीय चिन्तन कहता है-मनुष्य ! तू अपने अधिकार का प्रतिक्रमण न कर ! अपनी सीमाओं को लांघकर दूसरे की सीमा में मत घुस ! जब अपने सामर्थ्य से बाहर जाकर सोचेगा, तो अहंकार जगेगा, 'मैं' का भूत सिर पर चढ़ जाएगा और तेरे जीवन की सुख-शान्ति विलीन हो जाएगी। शान्ति का मार्ग : हमारे यहाँ एक कहानी जाती है कि एक मुनि के पास कोई भक्त प्राया और बोलामहाराज ! मन को शान्ति प्राप्त हो सके, ऐसा कुछ उपदेश दीजिए ! मुनि ने भक्त को नगर के एक सेठ के पास भेज दिया। सेट के पास श्राकर उसने कहा— मुनि ने मुझे भेजा है, शान्ति का रास्ता बतलाइए ! सेठ ने समागत अतिथि को ऊपर से नीचे तक एक दृष्टि से देखा और कहा - 'यहाँ कुछ दिन मेरे पास रहो, चौर देखते रहो ।' भक्त कुछ दिन वहाँ रहा, देखता रहा। सेठ ने उससे कुछ भी पूछा नहीं, कहा नहीं । रात-दिन अपने काम-धन्धे में जुटा रहता। सैकड़ों आदमी आते-जाते मुनीम गुमास्ते बहीखातों का ढेर लगाए सेठ के सामने बैठे रहते । भक्त सोचने लगा- ' - "यह सेठ, जो रात-दिन अन्तर्यात्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only ३५६ www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy