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कब से दिशाहीन बाहर में, भटक रहा है व्याकुल चेतन । व्यर्थ श्रान्त है, कृश-क्लान्त है, शान्ति-सुधा का अमर-निकेतन ॥
अन्तस्तल में गहरे-उतरो, क्या रखा है बाह्य दृष्टि में। शान्ति-सुधा का अक्षय-सागर, लहराता है, प्रात्म-सृष्टि में।
--उपाध्याय अमरमुनि
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