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________________ कीजिए, कितनी बड़ी बात कही है जैन परम्परा ने। तीर्थकर भी मंगलाचरण के रूप में तीर्थं को, संघ को नमस्कार करते हैं। जो सर्वज्ञ हो चुके हैं, श्रतिशय-सम्पन्न हैं, जिनकी साधना सिद्धि के द्वार पर पहुँच चुकी है, वे उस संघ को नमस्कार करते हैं, जिस संघ में छोटे-बड़े सभी साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका सम्मिलित हैं । उस धर्म-संघ की भगवान् वन्दना करते हैं। बुद्ध के जीवन में भी संघ की महत्ता का एक रोचक प्रसंग प्राता है । वहाँ भी श्रमणसंघ को एक पवित्र धारा के रूप में माना गया है। श्रावस्ती का सम्राट् ! प्रसेनजित जब तथागत बुद्ध को वस्त्र दान करने के लिए आता है, तो बुद्ध उससे पूछते हैं- " सम्राट् ! तुम दान का पुण्य कम लेना चाहते हो या अधिक ?' सम्राट् ने उत्तर दिया – “ भन्ते ! कोई भी कुशल व्यापारी अपने माल का अधिकसे अधिक लाभ चाहेगा, कम नहीं । अतएव मैं भी अपने दान का अधिक-से-अधिक लाभ ही चाहता हूँ ।" सम्राट् के उत्तर पर तथागत बुद्ध ने एक बहुत बड़ी बात कह दी — "सम्राट् ! यदि अधिक-से-अधिक लाभ लेना चाहते हो, तो तुम्हारा यह दान (वस्त्र) मुझे अर्पण नहीं करके, संघ को अर्पण कर दो। मेरी अपेक्षा संघ को अर्पण करने में अधिक पुण्य होगा। संघ मुझ से भी अधिक महान् है ।" संघ के महत्त्व को प्रदर्शित करने वाली इस प्रकार की घटनाएँ संघीय जीवन का सुन्दर दर्शन उपस्थित करती हैं। हजारों वर्ष के बाद आज भी हमारे जीवन में संघ की महत्ता और गौरव गाथा, इन संस्मरणों के आधार पर सुरक्षित है । भले ही बीच के काल में कितनी ही राजनीतिक हलचलें हुईं, उथल-पुथल हुईं, समाज के कई टुकड़े हो गए, संघ की शक्ति अलगअलग खण्डों में विभक्त हो गई, पर टुकड़े-टुकड़े होकर भी हम जहाँ भी रहे, संघ बनकर रहे, समूह और समाज बनकर रहे। यही हमारी सांस्कृतिक परम्परा का इतिहास है। संघ की गौरव गाथाओं ने आज भी हमारे जीवन में संघीय जीवन का आकर्षण भर रखा है, संघीय सद्भाव को सहारा देकर टिकाए रखा है। संगठन की शक्तिमत्ता : संघ एक धारा है, एक निर्मल प्रवाह है, जो इसके परिपार्श्व में खड़ा रहता है, निकट में आता है, उसे यह पवित्र धारा जीवन अर्पण करती चली जाती है । स्नेह, सद्भाव और सहयोग का जल सिंचन कर उसकी जीवन-भूमि को हरा-भरा करके लहलहाती रहती है । धारा इस धारा से टूट कर दूर पड़ गई, वह धारा ग्रागे चलती चलती किसी ग्रज्ञान, अन्धविश्वास तथा निहित स्वार्थ के गड्ढे में पड़कर संकुचित हो गई और उसका प्रवाह खत्म हो गया, उसका जीवन समाप्त हो गया। गंगा की विराट् धारा बहती है, उसमें स्वच्छता, निर्मलता और पवित्रता रहती है, किन्तु उसमें से कुछ बहता जल यदि कभी पृथक धारा के रूप पड़ जाता है और किसी गड्ढे में अवरुद्ध हो जाता है, तो वह अपनी पवित्रता बनाए नहीं रख पाता, वह जीवनदायिनी धारा नहीं रह पाता, बल्कि जीवननाशिनी धारा बन जाता है । वह विछिन्नधारा सड़कर वातावरण में सड़ांध पैदा करने लग जाती है और सड़-सड़कर चारों और मौत बाँटने के लिए प्रस्तुत हो जाती है । अन्ततोगत्वा जीवनदायी जल जीवन- घातक बन जाता है । वृक्ष की बड़ी-बड़ी शाखाएँ और छोटी-छोटी टहनियाँ हवा से झूमती, लचकती, एक प्रकार से नृत्य करती हुई-सी वृक्ष की विराटता और महानता की शोभा बढ़ाती हैं । फल-फूल उसके सौन्दर्य को द्विगुणित करते रहते हैं । हरे-हरे असंख्य पत्तों से वृक्ष की काया लुभावनी लगती है । ये शाखाएँ, पत्ते, फल-फूल विराट् वृक्ष के सौन्दर्य बनकर रहते हैं । इसमें वृक्ष की भी सुन्दरता है और उन सबकी भी सुन्दरता एवं शोभा है। फल है, तो फल बनकर रस दे रहा है, फूल है, तो फूल बनकर महक रहा है। पत्र हैं, तो पत्र बन कर शीतल छाया दे रहे हैं। यदि वे पत्र और फल-फूल वृक्ष से अलग पड़ जाते हैं, टूट-टूटकर गिर जाते हैं, तो उनका ३४६ पन्ना समिक्सर धम्मं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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