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________________ थी, इतना अशक्त और असहाय प्राणी बाद में इतना शक्तिशाली बना कि आश्चर्य है उसकी क्षमता पर। इसका आधार है- "अपने शुभ कर्मों का संचय एवं उसके आधार पर प्राप्त होने वाले माता, पिता, परिवार व समाज का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग ।” यह निश्चित है कि जिन महान् पुरुषों ने हमें समाज की इतनी ऊँचाइयों पर लाकर खड़ा किया है, उनके प्रति हमारा बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। समाज का ऋण प्रत्येक मनुष्य के सिर पर है, जिसे वह लेते समय हर्ष के साथ लेता है, तो फिर उसको चुकाते समय वह कुलबुलाता क्यों है ? हमारी यह सब सम्पत्ति, सब ऐश्वर्य और ये सब सुख सामग्रियाँ समाज की ही देन हैं। यदि मनुष्य लेता ही लेता जाए वापस दे नहीं तो वह समाज के अंग में विकार पैदा कर देता है। वह इस धन ऐश्वर्य का दास बनकर क्यों रहे, उसका स्वामी बनकर क्यों न उपयोग करे ! उसे दो हाथ मिले हैं, एक हाथ से स्वयं खाए, तो दूसरे हाथ से औरों को भी खिलाए। वेद का एक मन्त्र है " शतहस्त समाहर, सहस्रहस्त संकिर ।" सौ हाथ से इकट्ठा करो, तो हजार हाथ से बाँटो संग्रह करने वाला यदि विसर्जन नहीं करे, तो उसकी क्या दशा होती है ? पेट में अन्न यादि इकट्ठे तो होते जाएँ, परन्तु न उनका रस बने, न शक्ति बने और न प्राप्त शक्ति का योग्य वितरण ही हो, तो क्या आदमी जी सकता है ? मनुष्य यदि समाज से कमाता है, तो समाज की भलाई के लिए देना भी आवश्यक होता खुद खाता है, तो दूसरों को खिलाना भी जरूरी है । हमारे प्रतीत-जीवन के उदाहरण aar हैं कि अकेला खाने वाला राक्षस होता है और दूसरों को खिलाने वाला देवता । एक पौराणिक कथा है कि देवताओं को भगवान् विष्णु की ओर से प्रीतिभोज का आमंत्रण दिया गया। सभी अतिथियों को दो पंक्तियों में आमने-सामने बिठलाकर भोजन परोसा गया और सभी से खाना शुरू करने का निवेदन किया गया। भगवान् विष्णु ने कुछ ऐसी माया रची कि सभी के हाथ सीधे रह गए, किसी का मुड़ता तक नहीं था । अब समस्या हो गई कि खाएँ तो कैसे खाएँ ? जब अच्छा भोजन परोसा हुआ सामने हो, पेट में भूख हो और हाथ नहीं चलता हो, तो ऐसी स्थिति में आदमी झुंझला जाता है। सभी अतिथि भौचक्के से देखते रह गए कि यह क्या हुआ ? श्राखिर बुद्धिमान देवताओं ने एक तजबीज निकाली । जब देखा कि हाथ मुड़कर घूमता नहीं है, तो आमने-सामने वाले एक-दूसरे को खिलाने लग गए। दोनों पंक्ति वालों ने परस्पर एक-दूसरे को खिला दिया और अच्छी तरह से खाना खा लिया । जिन्होंने एक-दूसरे को खिलाकर पेट भर लिया सभी तृप्त हो उठे, पर कुछ ऐसे भी थे, जो यों ही देखते ही रह गए, उन्हें एक-दूसरे को खिलाने की नहीं सूझी, वे भूखे पेट ही उठ खड़े हुए। विष्णु ने कहा- जिन्होंने एक-दूसरे को खिलाया वे देवता है और जिन्होंने किसी को नहीं खिलाया, सिर्फ स्वयं खाने की चिन्ता ही करते रहे, वे दैत्य हैं । वास्तव में यह रूपक जीवन की एक ज्वलंत समस्या का हल करता है । देव और दैत्यभावना के विभाजन का श्राधार, इसमें एक सामाजिक ऊँचाई पर खड़ा किया गया है। जो दूसरों को खिलाता है, वह स्वयं भी भूखा नहीं रहता और दूसरी बात है कि उसका आदर्श देवत्व का आदर्श है, जबकि स्वयं ही पेट भरने की चिता में पड़ा रहने वाला, स्वयं भी भूखा रहता है और समाज में उसका दानवीय रूप प्रकट होता है । व्रतों की सार्थकता : हमारे व्रत जीवन के इसी महान् उद्देश्य को प्रकट करते हैं । सामाजिक जीवन की आधार भूमि और उसके उज्ज्वल श्रादर्श हमारे व्रतों एवं त्योहारों की परम्परा में छिपे पड़े हैं। भारत के कुछ पर्व इस लोक के साथ परलोक के विश्वास पर भी चलते हैं । उनमें मानव मानव संस्कृति में व्रतों का योगदान Jain Education International For Private & Personal Use Only ३३७ www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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