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________________ विवेकानन्द ने इसके उत्तर में कहा-"ठीक है, आपके यहाँ की संस्कृति दजियों की संस्कृति रही है, इसलिए आप उन्हीं के आधार पर वस्त्रों की काटछांट एवं बनावट के आधार पर ही सभ्यता का मूल्यांकन करते हैं। किन्तु जिस देश में मैंने जन्म लिया है, वहां की संस्कृति मनुष्य के निर्मल चारित्न एवं उच्च प्रादर्शों पर आधारित है। वहाँ जीवन में बाहरी तड़कभड़क और दिखावे की प्रतिष्ठा नहीं है, बल्कि सादगी और सच्चाई की प्रतिष्ठा है।" उपनिषद् में एक कथा आती है-एक बार कुछ ऋषि एक देश की सीमा के बाहरबाहर से कहीं दूर जा रहे थे। सम्राट् को मालूम हुआ तो वह आया और पूछा--"आप मेरे जनपद को छोड़कर क्यों जा रहे हैं ? मेरे देश में ऐसा क्या दोष है ? "न मे स्तेनो जनपदे, न कदर्यो न मद्यपः, नानाहिताग्नि विद्वान्, न स्वैरी स्वेरिणी कुतः ?" मेरे देश में कोई चोर-उचक्के नहीं है, कोई दुष्ट या कृपण मनुष्य नहीं रहते हैं, शराबी, चारित्रहीन, मुर्ख-अनपढ़ भी मेरे देश में नहीं है, तो फिर क्या कारण है कि आप मेरे देश को यों ही छोड़कर आगे जा रहे हैं ?" ____ मैं देखता हूँ, भारतीय राष्ट्र की यही सच्ची तस्वीर है, जो उस युग में प्रतिष्ठा और सम्मान के रूप में देखी जाती थी। जिस देश और राष्ट्र की संस्कृति, सभ्यता इतनी महान् होती है, उसी की प्रतिष्ठा और महत्ता के मानदंड संसार में सदा अादर्श उपस्थित करते हैं। यही संस्कृति वह संस्कृति है, जो गरीबी और अमीरी दोनों में सदा प्रकाश देती है। महलों और झोंपड़ियों में निरन्तर प्रसन्नता बाँटती रहती है, आनन्द उछालती रहती है। जिस जीवन में इस संस्कृति के अंकुर पल्लवित-पुष्पित होते हैं, होते रहे हैं, वह जीवन संसार का प्रादर्श जीवन है, महान् जीवन है। ३३२ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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