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विद्वान् का कथन है कि - " सभ्यता किसी संस्कृति की चरम अवस्था होती है । प्रत्येक संस्कृति की अपनी एक सभ्यता होती है । सभ्यता संस्कृति की अनिवार्य परिणति है। यदि संस्कृति विस्तार है, तो सभ्यता कठोर स्थिरता ।" संस्कृति का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं तथ्यमूलक अनुसन्धान (anthropology ) मानव-विज्ञान शास्त्र में हुआ है। संस्कृति की सबसे पुरानी और व्यापक परिभाषा टायलर की है, जो उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण में दी गई थी । टायलर की, संस्कृति की परिभाषा इस प्रकार है---" संस्कृति अथवा सभ्यता एक वह जटिल तत्त्व है, जिसमें ज्ञान, नीति, न्याय, विधान, परम्परा और दूसरी उन योग्यताओं और आदतों का समावेश है, जिन्हें मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते प्राप्त करता है ।" मेरे विचार में, सभ्यता और संस्कृति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं - एक भीतर का और दूसरा बाहर का । संस्कृति और सभ्यता बहुत कुछ उसी भावना को अभिव्यक्त करती हैं, जिसे विचार और प्राचार कहते हैं । जीवन का स्थूल रूप यदि सभ्यता है, तो उसका सूक्ष्म-प्रांतरिक रूप संस्कृति है ।
संस्कृति का आधार :
मनुष्य की प्रतिष्ठा का मूल आधार, उसका अपना मनुष्यत्व ही माना गया है । चरित्र, त्याग, सेवा और प्रेम- इसी आधार पर मानव की महत्ता तथा प्रतिष्ठा का महल खड़ा किया गया है । पर आज लगता है-मनुष्य स्वयं इन आधारों पर विश्वास नहीं कर रहा है । अपनी प्रतिष्ठा को चार चाँद लगाने के लिए, उसकी दृष्टि भौतिक साधनों पर जा रही है, वह धन, सत्ता और नाम के आधार पर अपनी प्रतिष्ठा का नया प्रासाद खड़ा करना चाह रहा | आज महत्ता के लिए एकमात्र भौतिक विभूति को ही आधार मान लिया गया
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आज समाज और राज्य ने प्रतिष्ठा का आधार बदल दिया है, मनुष्य के दृष्टिकोण को बदल दिया है । आज की संस्कृति और सभ्यता धन और सत्ता पर केन्द्रित हो गई है । इसलिए मनुष्य की प्रतिष्ठा का आधार भी धन और सत्ता बन गए हैं। धन और सत्ता बदलती रहती है, हस्तान्तरित होती रहती है, इसलिए प्रतिष्ठा भी बदलती रहती है। आज जिसके पास सोने का अम्बार लगा है, या कहना चाहिए, नोटों का ढेर लगा है, जिसके हाथ में सत्ता है, शासन है, वह यदि चारित्रहीन और दुराचारी भी होगा, तो भी उसे सम्मान और प्रतिष्ठा मिलती रहेगी, समाज उसकी जय-जयकार करता रहेगा, सैकड़ों लोग उसकी कुर्सी की परिक्रमा करते रहेंगे। चूंकि सारी प्रतिष्ठा उसकी तिजोरी में बन्द हो गई है या कुर्सी के चारों पैरों के नीचे दुबकी बैठी है। संस्कृति के ये आधार न तो स्थायी हैं और न सही ही है ।
धन और सत्ता के आधार पर प्राप्त होने वाली प्रतिष्ठा कभी स्थायी नहीं होती । वह इन्द्रधनुष की तरह एकबार अपनी रंगीन छटा से संसार को मुग्ध भले ही कर दे, किन्तु कुछ काल के बाद उसका कोई अस्तित्व प्रासमान और धरती के किसी कोने में नहीं मिल पाता । यदि धन को स्थायी प्रतिष्ठा मिली होती, तो आज संसार में धनकुबेरों के मन्दिर बने मिलते । उनकी पूजा होती रहती । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और रावण जैसों की मालाएँ फेरी जाती, जरासन्ध और दुर्योधन को संसार आदर्श पुरुष मानता। जिनकी सोने की नगरी थी, जिनके पास अपार शक्ति थी, सत्ता थी, अपने युग में उन्हें प्रतिष्ठा भी मिली थी, ख्याति भी मिली थी। पर याद रखिए, प्रतिष्ठा और ख्याति मिलना दूसरी बात है -- श्रद्धा मिलना कुछ और बात है । जनश्रद्धा उसे मिलती है जिसके पास यथार्थ सत्य एवं चारित्र होता है । ख्याति, प्रशंसा और प्रतिष्ठा क्रूरता से भी मिल सकती है, मिली भी है, पर युग के साथ उनकी ख्याति बुलबुले समाप्त हो गए, उनकी प्रतिष्ठा प्राज खंडहरों में सोयी पड़ी है ।
मनुष्य के मन की यह सबसे बड़ी दुर्बलता है कि वह इस बाह्य प्रतिष्ठा के बहाव में अन्धा होकर बहता चला जा रहा है ।
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tar समिक्ख धम्मं
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