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________________ करने वाले भी रहे हैं और साथ ही निराकार के उपासक भी। धर्म के विकास के लिए और अपने-अपने विचार का प्रचार करने के लिए कुछ अपवादों को छोड़ कर भारत में कभी किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं रहा है। यहाँ पर साधक एवं उपासक को इतनी स्वतन्त्रता रही है कि वह अपने आदर्श के अनुसार चाहे किसी एक देवता को माने, अथवा अनेक देवताओं को माने। भारत में वेद का समर्थन करने वाले भी हुए हैं और वेद का घोर विरोध करने वाले भी हुए हैं। भारत की धरती पर मन्दिर, मस्जिद और चर्च तीनों का सुन्दर समन्वय हुया है। मेरे विचार में इस एकता और समन्वय का कारण भारतीय दृष्टिकोण की उदारता एवं सहिष्णता ही है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति एक ऐसी संस्कृति है, जिसमें अधिक से अधिक संस्कृतियों का रंग मिला हुआ है, अतः वह अधिक से अधिक विभिन्न धर्मों एवं जातियों की मानसिक एवं आध्यात्मिक एकता का प्रतिनिधित्व कर सकती है। आज के नवीन विश्व को यदि भारत से कुछ पाना है, तो वह प्राचीन भारत से ही प्राप्त कर सकता है। प्राचीन भारत के उपनिषद्, आगम और त्रिपिटक आज भी इस राह भूली दुनिया को बहुत कुछ प्रकाश दे सकते हैं। आज के विश्व की पीड़ाओं का समाधान आध्यात्मिक भावना में हैं। अभिनव मनुष्य अतिभोगी हो गया है। वह अपनी रोटी दूसरों के साथ बांट कर नहीं खाना चाहता । उसे हर हालत में पूरी रोटी चाहिए, भले ही उसे भूख आधी रोटी की ही क्यों न हो। उक्त भोग-वृत्ति का शमन उदार त्याग-वृत्ति में है, जो भारतीय संस्कृति का मूल-प्राण है। मेरा अपना विचार यह है कि भारतीय संस्कृति में जो रूढ़िवादिता आ गई है, यदि उसे दूर किया जाए, तो भारत के पास आज भी दूसरों को देने के लिए बहुत-कुछ शेष है। विश्व की भावी एकता की भूमिका, भारत की सामासिक संस्कृति ही हो सकती है। जिस प्रकार भारत ने किसी भी धर्म का दलन किए बिना, अपने यहाँ धार्मिक एकता स्थापित की, जिस प्रकार भारत ने किसी भी जाति की विशेषता नष्ट किए बिना, सभी जातियों को एक संस्कृति के सूत्र में प्राबद्ध किया, उसी प्रकार भारतीय संस्कृति के उदार विचार इतने विराट एवं विशाल रहे हैं कि उसमें संसार के सभी विचारों का समाहित हो जाना असम्भव नहीं है। ऋषभदेव से लेकर राम तक और राम से लेकर वर्तमान में गांधी-युग तक भारतीय संस्कृति सतत गतिशील रही है। यह ठीक है कि बीच-बीच में उसमें कहीं रुकावटें भी अवश्य पाती रही है, किन्तु वे रुकावटें उसके गन्तव्य पथ को बदल नहीं सकीं। रुकावट आ जाना एक अलग बात है और पथ को छोड़कर भटक जाना एक अलग बात है। हजारों और लाखों वर्षों की इस भारत की प्राचीन संस्कृति में वह कौन तत्त्व है, जो इसे अनुप्राणित और अनुप्रेरित करता रहा है ? मेरे विचार में, कोई ऐसा तत्त्व अवश्य होना चाहिए, जो युग-युग में विभिन्न धाराओं को मोड़ देकर उसकी एक विशाल और विराट् धारा बनाता रहा हो। प्रत्येक संस्कृति का और प्रत्येक सभ्यता का अपना एक प्राण-तत्त्व होता है, जिसके आधार पर वह संस्कृति और सभ्यता तन कर खड़ी रहती है और संसार के विनाशक तत्त्वों को चुनौती देती रहती है। रोम और मिश्र की संस्कृतियाँ धूलिसात् हो चुकी है, जबकि वे संस्कृतियाँ भी उतनी ही प्राचीन थीं, जितनी कि भारत की संस्कृति । भारतीय संस्कृति का प्राण-तत्त्व : भारत की संस्कृति का मल-तत्व अथवा प्राण-तत्त्व है----अहिंसा और अनेकान्त, समता और समन्वय । वस्तुतः विभिन्न संस्कृतियों के बीच सात्विक समन्वय का काम अहिंसा और अनेकान्त के बिना नहीं चल सकता। तलवार के बल पर हम मनुष्य को नष्ट तो कर सकते हैं, पर उसे जीत नहीं सकते । असल में मनुष्य को सही रूप में जीतना, उसके हृदय पर अधिकार पाना है; तो उसका शाश्वत उपाय समर-भूमि की रक्त-धारा से लाल कीचड़ नहीं, सहिष्णुता का शीतल प्रदेश ही हो सकता है। आज से ही नहीं, अनन्तकाल से भारत' अहिंसा और अनेकान्त की साधना में लीन रहा है। अहिंसा और अनेकान्त को समता और समन्वय ३२८ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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