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________________ जब रस मिलेगा, तब उसकी सब गुन-गुनाहट बन्द हो जाएगी, वह सत्कर्म में लीन होता चला जाएगा, एक रस, एकात्मा बन जाएगा। समस्त विकल्प समाप्त हो जाएँगे और प्रानन्द का अक्षय - सागर लहरा उठेगा । विकल्पों को एक साथ मिटाएँ : साधक के सामने कभी -कभी एक समस्या आती है - वह विकल्पों से लड़ने का प्रयत्न करते-करते कभी-कभी उनमें और अधिक उलझ जाता है। वह एक विकल्प को मिटाने जाता है, तो दूसरे हजार विकल्प खड़े हो जाते हैं और इस तरह साधक इस संघर्ष में विजयी बनने की जगह पराजित हो जाता है। वह निराश हो जाता है और उसे साधना नीरस प्रतीत होने लगती है । मैंने प्रारम्भ में कहा है-- "मन के साथ झगड़ने का तरीका गलत है। संघर्ष करके मन को कभी वश में नहीं किया जा सकता, विकल्पों का कभी अन्त नहीं किया जा सकता ।" कल्पना कीजिए—खेत में धान के पौधे लहलहा रहे हैं और उन पर पक्षी प्रा रहे हैं, तो उन्हें एक-एक करके यदि उड़ाने का प्रयत्न हो, तो कब तक उड़ाया जा सकता है ? यदि एक चिड़िया को उड़ाने गए, तो पीछे दस चिड़ियाँ आ जाएँगी। उन्हें तो किसी एक धमाके से ही उड़ाना होगा और वह भी एक साथ उड़ाना होगा । यह मन, एक विशाल वट-वृक्ष है। इस पर काम, क्रोध, मोह, माया अहंकाररूपी विकल्पों की असंख्य असंख्य चिड़ियाँ बैठी हैं। यदि उन्हें हम एक-एक कर उड़ाने का प्रयत्न करते रहें, तो वे कभी भी उड़ नहीं सकेंगी। उनके लिए तो बन्दूक का एक धमाका ही करना पड़ेगा कि सब एक साथ उड़ जाएँ। धमाके की बात, मन को रस में डुबो देने की बात है । यदि मन रस में डूब जाता है, तो विकल्प समाप्त हो जाते हैं और वह भी एक ही साथ । जीवन में यदि आप दान देते हैं, सेवा करते हैं, अध्ययन करते हैं या और कुछ भी सत्कर्म करते हैं, तो उसमें आनन्द प्राप्त करने का प्रयत्न कीजिए । प्रानन्द तब मिलेगा, जब उसमें आपकी श्रद्धा होगी, आपके मन में उस सत्कर्म के प्रति रस होगा। जिसे आप गहरी दिलचस्पी कहते हैं, वह रस ही तो है । जब रस उमड़ पड़ेगा, तो न विकल्पों का डर रहेगा, नमन की चंचलता की शिकायत रहेगी । तन अपने आप सत्कर्म में लग जाएगा और उसके आनन्द में विभोर हो उठेगा। फिर न किसी प्रेरणा की अपेक्षा रहेगी, न उपदेश की । बस, अपने आप सब अपेक्षाएँ पूर्ण होती जाएँगी। और आप जीवन में अपार श्रानन्द एवं शान्ति का अनुभव करने लगेंगे। कहा भी है- "यह जाना गया कि श्रानन्द ही ब्रह्म है । आनन्द से ही सब भूत उत्पन्न होते हैं, श्रानन्द से ही जीवित रहते हैं और अन्त में आनन्द में ही विलीन हो जाते हैं ।" " १. श्रानन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् । श्रानन्दाद्ध्यैव खलु इमानि भूतानि जायन्ते, आन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्ति, अभिसंविशन्तीति । साधना का केन्द्र-बिन्दुः अन्तर्मन Jain Education International For Private & Personal Use Only -- तैत्तिरीय उपनिषद्, ३, ६ १५ www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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