SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वारा सत्य का द्रष्टा होता है । कोष-साहित्य में ऋषि का अर्थ यही किया गया है । वह अन्त:स्फूर्त कवि, मुनि, मन्त्र द्रष्टा और प्रकाश की किरण है । कवि शब्द का अर्थ काव्य का रचयिता ही नहीं, अपितु ईश्वर - भगवान् भी होता है । इस संबंध में इशोपनिषद् कहता है- "कविर्मनीविपरिभूः स्वयंभू " उक्त विवेचन का सार यही है कि सत्य की उपलब्धि के लिए मानव की अपनी स्वयं की प्रज्ञा ही हेतु है । प्रज्ञा के अभाव में व्यक्ति, समाज, राष्ट्र व धर्म आदि सब तमसाच्छन हो जाते हैं । और इसी तमसाच्छन्न स्थिति में से अन्ध-मान्यताएँ एवं अन्ध-विश्वास जन्म लेते हैं, जो अन्ततः मानव जाति की सर्वोत्कृष्टता के सर्वस्व संहारक हो जाते हैं । अतीत के इतिहास में जब हम पहुँचते हैं, तो देखते हैं कि प्रज्ञा के अभाव में मानव ने कितने भयंकर अनर्थ किए हैं। हजारों ही नहीं, लाखों महिलाएँ, पति की मृत्यु पर पतिव्रता एवं सतीत्व की गरिमा के नाम पर पति के शव के साथ जीवित जला दी गई हैं । आज के सुधारशील युग में यदा-कदा उक्त घटनाएँ समाचार पत्नों के पृष्ठों पर आ जाती हैं। यह कितना भयंकर हत्याकाण्ड है, जो धर्म एवं शास्त्रों के नाम पर होता आ रहा है । देवी-देवताओं की प्रस्तर मूर्तियों के आगे मूक- पशुओं के बलिदान की प्रथा भी धार्मिक परम्पराओं के नाम पर चालू है। एक-एक दिन में देवी के श्रागे सात-सात हजार बकरे काट दिए जाते हैं । और हजारों नर-नारी, बच्चे, बुड्ढे, नौजवान हर्षोल्लास से नाचते-गाते हैं एवं देवी के नाम की जय-जयकार करते हैं। लगता है कि मानव के रूप में कोई दानवों का मेला लगा है | विचार चर्चा करें और विरोध में स्वर उठाएँ, तो झटपट कोई शास्त्र लाकर सामने खड़ा कर दिया जाता । और, पण्डे - पुरोहित धर्म - ध्वंस की दुहाई देने लगते हैं । पशु ही क्यों, सामूहिक नरबलि तक के इतिहास की ये काली घटनाएँ हमें भारतीय इतिहास में मिल जाती हैं और प्राज भी मासूम बच्चों के सिर काट कर देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि के रूप में अर्पित कर दिए जाते हैं । अन्धविश्वासों की परम्परा की कथा बड़ी लम्बी है। कहीं ग्रामीण महिलाएँ सर्वथा नग्न होकर वर्षा के लिए खेतों में हल जोतने का अभिनय करती हैं । और, कहीं पर पशुबलि एवं नरबलि तक इसके लिए दे दी जाती है । प्रज्ञा-हीन धर्म के चक्कर में भ्रमित होकर लोगों ने आत्मपीडन का कष्ट भी कम नहीं उठाया है । वस्त्रहीन नग्न होकर हिमालय में रहते हैं। जेठ की भयंकर गर्मी में चारों ओर धूनी लगाते हैं । कांटे बिछाकर सोते हैं । जीवित ही मुक्ति के हेतु गंगा में कूद कर आत्महत्या कर लेते हैं । और कुछ लोग तो जीवित ही भूमि में समाधि लेकर मृत्यु का वरण भी करते हैं । और कुछ ग्रात्मदाह करने वाले भी कम नहीं हैं। लगता है, मनुष्य sara होते हुए भी अंधा हो गया है । धर्म-रक्षा के नाम पर वह कुछ भी कर सकता है या उससे कुछ भी कराया जा सकता है । धर्म और गुरुओं के नाम पर ऐसा भयंकर शहीदी जनून सवार होता है कि अपने से भिन्न धर्म-परम्परा के निरपराध लोगों की सामूहिक हत्या तक करने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती । यह सब उपद्रव देव मूढ़ता, गुरु-मूढता तथा शास्त्र मूढ़ता के कारण होते हैं । प्रज्ञा ही, उक्त मूढ़तानों को दूर कर सकती है। किन्तु, धर्म के भ्रम में उसने अपना या समाज का भला-बुरा सोचने से इन्कार कर दिया है। अतः अतः अपेक्षा है, प्रज्ञा की अन्तर-ज्योति को प्रज्वलित करने की । बिना ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हुए, यह भ्रम का सघन अन्धकार कथमपि दूर नहीं हो सकता अनेक भारत के प्रबुद्ध मभीषियों ने ज्ञान ज्योति को प्रकाशित करने के लिए प्रबल प्रेरणा दी है। श्री कृष्ण तो कहते हैं--ज्ञान से बढ़कर विश्व में अन्य कुछ भी पवित्र नहीं है- "न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।" ३१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy