SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ सर्व-धर्म समन्वय : अनाग्रह-दृष्टि "धारणाद् धर्ममित्याहुः"-जो धारण करता है, वही धर्म है। यह उक्ति बहुत ही प्रसिद्ध है और इसकी प्रसिद्धि का कारण मात्र इसकी यथार्थता है, कुछ और नहीं। किसी वस्तु को धारण करने का अर्थ होता है, उसके अस्तित्व को कायम रखना। हर एक पदार्थ में, चाहे वह चल हो या प्रचल, चेतन हो या अचेतन, कोई न कोई ऐसा तत्त्व अवश्य होता है, जिसके कारण उसका अस्तित्व बना रहता है। यदि उस तत्त्व को उस वस्तु में से हटा दिया जाए तो निश्चित ही वह विनष्ट हो जाएगी, उसकी सत्ता नाम की कोई भी चीज नहीं रह जाएगी। अपने मूल धर्म के कारण ही वह तत्त्व सदा एक-सा रहता है, वह कभी मिटता नहीं, भले ही उसके बाह्यरूप क्यों न बदल जाए। स्वर्ण से कभी हार बनता है, तो कभी अंगठी, किन्तु स्वर्णत्व जो उसका वास्तविक गुण है, वह नहीं बदलता। मनुष्य के साथ भी यही बात है। उसकी आत्मा अमिट है, अपरिवर्तनशील है, पर उसका शरीर जिसे उसकी बाह्य रूपरेखा' कहते हैं, हमेशा बदलता रहता है। जब-जब वह नया जन्म धारण करता है, तब-तब उसका रूप बदलता जाता है। यदि आत्मा न हो, तो शरीर चेतनाशून्य और उपयोगिता रहित हो जाता है। इसी प्रकार धर्म का जो मौलिक तत्त्व है, वह उसकी आत्मा है और जो सम्प्रदाय है, वह उसका शरीर है। आत्मा की तरह किसी भी धर्म का जो मौलिक सिद्धान्त है, वह बदलता नहीं और उसकी व्यापकता किसी एक स्थान या एक काल तक ही सीमित नहीं होती। क्योंकि धर्म का जो वास्तविक रूप है, वह शाश्वत है, सर्वव्यापी है। यदि कोई सीमा इसमें दिखाई पड़ती है, तो वास्तव में उसका कारण हमारा दृष्टिगत वैविध्य है। ब्राह्मण कहते हैं, जो बातें श्रुति-स्मतियों में कही गई हैं, वे ही सत्य हैं, इनमें जिन सिद्धान्तों का विवेचन हुअा है वही धर्म है, शेष जो भी है, उसे धर्म की सीमा में स्थान प्राप्त नहीं होता। जैन कहते हैं कि मात्र प्रागम ही, जिनमें भगवान महावीर की वाणी संकलित है, धर्म के स्रोत हैं। बौद्धों का कहना है कि त्रि-पिटक साहित्य (पिटकों) में वर्णित भगवान् बुद्ध के उपदेश के सिवा और कुछ धर्म नहीं कहला सकता। ईसाई मतानुयायी बाईबिल को ही सब-कुछ मानते हैं। यही बात इस्लाम-मतावलम्बियों के साथ है। ये कहते हैं कि कुरान ही धर्म का एकमात्र आधार है। किन्तु तटस्थ होकर सभी धर्मों या मतों को देखने से लगता है कि सब में वही तत्त्व प्राण की तरह काम कर रहा है, जो शाश्वत है, सदा एक-सा है। प्रश्न उठता है कि शाश्वत धर्म आखिर है क्या? इस प्रश्न के उत्तर में कहना है अहिंसा सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह ही मौलिक अथवा शाश्वत धर्म हैं। क्योंकि धर्म या प्राचार के क्रियाकाण्ड सम्बन्धी जो भी अन्य नियम हैं, वे प्रायः इन्हें ही केन्द्र मानकर प्रचलित हैं। इन पांच सिद्धान्तों के अलावा जो भी धर्म या प्राचार सम्बन्धी नियम हैं, वे अमौलिक है, ऐसा भी कहना कोई अनुचित न होगा। पर अमौलिक होते हुए भी ऐसे सिद्धान्त समाज पर अपना कम प्रभाव नहीं रखते, क्योंकि यही साम्प्रदायिकता को जन्म देने वाले होते हैं।। जब धर्म सिद्धान्त से व्यवहार की ओर जाता है, तब उसे देश और काल की मर्यादा से सम्बन्धित होना पड़ता है और यहीं से सम्प्रदाय या संघ का प्रारम्भ होता है। सम्प्रदाय की मान्यता वहाँ तक सही है, जहाँ तक कि इसका उद्देश्य धर्म के मौलिक सिद्धान्तों का प्रचार या प्रसार करना है, लेकिन जब वह विभिन्न रूढ़ियों को जन्म दे देता है, तो परिणाम कुछ और ही निकल पाता है। कारण, एक दिन वे ही रूढ़ियाँ इस तरह बलवती हो जाती हैं कि वे धर्म के मौलिक सिद्धान्तों को उसी प्रकार ढक लेती हैं जैसे सूर्य को काले बादल सर्व-धर्म समन्वय : अनाग्रह-दृष्टि Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy