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संस्कृति में कहा गया है कि-"सागरे सर्वतीर्थानि" संसार के समस्त तीर्थ जिस प्रकार समुद्र में समाहित हो जाते हैं, उसी प्रकार दुनिया भर के संयम, सदाचार एवं शील ब्रह्मचर्य में अन्तनिहित हो जाते हैं। एक गुरु अपने शिष्य से कहता है-.-"यथेच्छसि तथा कुरु" यदि तेरे जीवन में त्याग, संयम और वैराग्य है, तो फिर तू भले ही कुछ भी कर, कहीं भी जा, कहीं पर भी रह, तुझे किसी प्रकार का भय नहीं है। प्राचार्य मनु कहते हैं कि"मनःपूतं समाचरेत्" यदि मन पवित्र है, तो फिर जीवन का पतन हो नहीं सकता। इसलिए जो कुछ भी साधना करनी हो, वह पवित्र मन से करो। यही ब्रह्मचर्य की साधना है।
सुकरात, प्लेटो और अरस्तू, जो अपने युग के महान दार्शनिक, विचारक और समाज के समालोचक एवं संशोधक थे, अपनी ग्रीक-संस्कृति का सारतत्त्व बतलाते हुए उन्होंने भी यही कहा है कि संयम और शील के बिना मानव-जीवन निस्तेज एवं निष्प्रभ है। मनुष्य यदि अपने जीवन में सदाचारी नहीं हो सकता, तो वह कुछ भी नहीं हो सकता। संयम और सदाचार ही मानव-जीवन के विकास के आधारभूत तत्त्व हैं। प्लेटो ने लिखा है कि मनुष्य-जीवन के तीन विभाग हैं-Thought (विचार), Desires (इच्छाएँ) और Feelings (भावनाएँ) । मनुष्य अपने मस्तिष्क में जो कुछ सोचता है, अपने मन में वह वैसी ही इच्छा करता है और उसकी इच्छाओं के अनुसार ही उसकी भावना बनती है। मनुष्य व्यवहार में वही करता है, जो कुछ उसके हृदय के अन्दर भावनाएँ उठती हैं। विचार से प्राचार प्रभावित होता है और प्राचार से मनुष्य का विचार भी प्रभावित होता है।
अध्यात्म दष्टि:
__ भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है। यहाँ प्रत्येक व्रत, तप, जप और संयम को भौतिक दृष्टि से नहीं, आध्यात्मिक दृष्टि से आँका जाता है। साधक जब भोग-वाद के दल-दल में फँस जाता है, तो अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप को वह भूल जाता है। इसलिए भारतीय विचारक, तत्त्व-चिन्तक और सुधारक साधक को बार-बार चेतावनी देते हैं कि आसक्ति, मोह, तृष्णा और वासना के कुचक्रों से बचो। जो व्यक्ति वासना के झंझावात से अपने शील की रक्षा नहीं कर पाता, वह कथमपि अपनी साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। न जाने कब वासना की तरंग मन में उठ खडी हो । वासना की इस दूषित तरंग के प्रभाव से बचने के लिए सतत् जागरुक और सावधान रहने की आवश्यकता है।
अध्यात्म और ब्रह्मचर्य :
कवि कालिदास ने अपने महाकाव्य 'कुमार संभव' में परमयोगी शंकर के जिस तप का उग्न वर्णन किया है, वह पाठक और श्रोता को निश्चय ही चकित कर देने वाला है । परन्तु अन्त में महाकवि कालिदास ने यह दिखलाया कि उस योगी का वह योग, और उस तपस्वी का वह तप, गौरी को वरण करके इति को प्राप्त हुआ। इस जीवन-गाथा से यह आभास मिलता है और पाठक यह निर्णय निकाल लेता है कि ब्रह्मचर्य की साधना असम्भव है। मनुष्य इसकी साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।
परन्तु महाकवि भारवी ने अपने 'किरातार्जुनीय' महाकाव्य में अर्जुन के तप और योग का जो विशद् वर्णन किया है, वह पाठक को चकित और स्तब्ध कर देने वाला है। महाभारत के युद्ध से पूर्व, शिव का वरदान पाने के लिए अर्जुन जब योग-साधना में लीन हो जाता है, तब उसकी योग-साधना की परीक्षा के लिए अथवा उसे साधना से भ्रष्ट करने के लिए. इन्द्र अनेक सुन्दर अप्सरानों को भेजता है और वे मिलकर, अपने मधर-संगीत, 'सुन्दर नृत्य और मादक हाव-भाव से अर्जुन के साधना-लीन चित्त को विचलित करने का
पन्ना समिक्खए धम्म
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