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________________ वैदिक-परम्परा में वाचस्पति मिश्र का बहुत ऊँचा स्थान है। वेदान्त के तो वे महान् आचार्य हो गए है, यों सभी विषयों में उनकी लेखनी चली है, वे सर्वतन्त्र स्वतन्त्र थे, उनकी कुछ मौलिक स्थापनाओं को आज भी चुनौती नहीं दी जा सकती है। उनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे विवाह से पूर्व ही वेदान्त-दर्शन के भाष्य पर टीका लिख रहे थे। विवाह हो गया, फिर भी वे अपने लेखन में ही डूबे रहे। रात-दिन उसी धुन में लगे रहे। संध्या होते ही पत्नी पाती, दीपक जला जाती और वे अपने लिखने में लगे रहते । एक वार तेल समाप्त होने पर दीपक बुझ गया, अंधेरा हो गया, तो लेखनी रुकी। पत्नी आई और तेल डाल कर दीपक फिर से जलाने लगी। तब वाचस्पति ने आँखे उठा कर प्रज्वलित दीपक के प्रकाश में पत्नी की ओर देखा । देखने पर पाया कि पत्नी का यौवन ढल चका था, काले केश सफेद होने जा रहे थे। वाचस्पति मिश्र सहसा बोल उठे-"अरे! यह क्या ? मुझे तो, ध्यान ही नहीं रहा कि मेरा विवाह हो गया है और तुम तो बूढ़ी भी हो गई।" सोचिए, यह कैसी बात है ? आप कहते हैं, काम में मन नहीं लगता है। और, एक वाचस्पति मिश्र थे कि यौवन बीत गया, पर उन्हें पता भी नहीं रहा कि विवाह किया भी है या नहीं ? यह बात और कुछ नहीं, कर्म में आनन्द की बात है, रस की बात है। अपने कर्म में उसे इतना आनन्द आया कि वह तल्लीन हो गया। मन में रस जगा कि वह कर्म के साथ एकाकार हो गया। फिर न कोई विकल्प, न कोई तनाव, न कोई चंचलता, और न किसी तरह की थकावट। इंग्लैन्ड के एक डॉक्टर के सम्बन्ध में कहा जाता है, कि वह जन-हित के लिए जीवन भर किसी महत्त्वपूर्ण शोध में लगा रहा। बुढ़ापे में किसी एक मित्र ने पूछा-"आपके संतान कितनी है?" डॉक्टर ने बड़ी संजीदगी से कहा-"मित्र ! तुमने भी क्या खूब याद दिलाई। मुझे तो कभी शादी करने की याद ही नहीं पाई।" ये बातें मजाक नहीं हैं, जीवन के मूलभूत सत्य हैं। जिन्हें अपने काम में आनन्द आ जाता है, उन्हें चाहे जितना भी काम हो, थकावट महसूस नहीं होती। समय बीतता जाता है, पर उन्हें पता नहीं चलता। जीवन में वे कभी उदविग्नता, विक्षिप्तता का अनुभव नहीं करते, उनका मन विकल्पों से परेशान होकर कभी करवटें नहीं बदलता। आपको मालूम होना चाहिए कि मन में विकल्प, थकावट, बेचनी, ऊब तभी आती है, जब कर्म में रस नहीं पाता। इन विकल्पों को भगाने के लिए, और कोई साधना नहीं है, सिवा इसके कि मन को किसी अच्छे निर्धारित कर्म के रस में डुबो दिया जाए। रस का स्रोत : श्रद्धा जैन-आगमों में रत्न-त्रय की चर्चा आती है--दर्शन, ज्ञान और चारित्र । दर्शन सबसे पहला रत्न है, वह साधना की मुख्य आधार-भूमि है । दर्शन का अर्थ है--श्रद्धा-निष्ठा । श्रद्धा मन को रस देती है, साधना में आनन्द जगाती है। आप कुछ भी कर रहे हैं, उस कर्म में आप की श्रद्धा है, तो उसमें आप को अवश्य रस मिलेगा, अवश्य आनन्द आएगा। कर्म करते हुए आपका मन मुरझाया हुअा नहीं रहेगा, प्रफुल्लित हो उठेगा। क्योंकि श्रद्धा रस का स्रोत है, आनन्द का उत्स है। __अतः मेरे दृष्टिकोण से कर्म से पहले, कर्म के प्रति श्रद्धा जगनी चाहिए। यदि मैं आपसे पूछ-"अहिंसा पहले होनी चाहिए या अहिंसा के प्रति श्रद्धा पहले होनी चाहिए? सत्य पहले हो या सत्य के प्रति श्रद्धा पहले हो? तो आप क्या उत्तर देंगे?" बात अचकचाने की नहीं है और हमारे लिए तो बिल्कुल नहीं, चूंकि यहाँ तो पहला पाठ श्रद्धा का ही पढ़ाया जाता है। स्पष्ट है कि अहिंसा, तभी अहिंसा है, जब उसमें श्रद्धा है। सत्य, तभी सत्य है, जब उसमें श्रद्धा-निष्ठा है। यदि श्रद्धा नहीं है, तो अहिंसा हिंसा हो जाती है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यदि अहिंसा में श्रद्धा-निष्ठा नहीं है, तो वह अहिंसा एक पॉलिशी या कूटनीति हो सकती साधना का केन्द्र-बिन्दुः अन्तर्मन १३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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