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________________ है, और यदि साधु बन गए हैं, तब तो उससे भी बड़ी आवश्यकता है। जिसे छोटा-सा परिवार मिला है, उसे भी आवश्यकता है। और, जो बड़ा ऊंचा नेता या पदाधिकारी बना है, जिसके कन्धों पर समाज एवं देश का महान् उत्तरदायित्व है, उसको भी इस कला की आवश्यकता है। जीवन में एक ऐसा सहज-भाव उत्पन्न हो जाना चाहिए कि मनुष्य जहाँ कहीं भी रहे, किसी भी स्थिति में रहे, एकरूप होकर रहे। यही एकरूपता; भद्रता एवं सरलता कहलाती है और यह जीवन के हर पहलू में रहनी चाहिए। सरलता की उत्तम कसौटी यही है कि मनुष्य सुनसान जंगल में जिस भाव से अपने उत्तरदायित्व को पूरा कर रहा है, उसी भाव से वह समाज में भी करे और जिस भाव से समाज में कर रहा है, उसी भाव से एकान्त में भी करे। प्रत्येक मनष्य को अपना कर्तव्य, कर्तव्य-भाव से, स्वतः ही पूर्ण करना चाहिए। किसी की आँखें हमारी ओर घूर रही हैं या नहीं, यह देखने की उसे आवश्यकता ही क्या है ? भगवान् महावीर का पवित्र सन्देश है कि मनुष्य अपने-आप में सरल बन जाए और द्वैत-भाव अर्थात् मन, वचन, काया की वक्रता न रखे। हर प्रसंग पर दूसरों की आँखों से अपने कर्तव्य को नापने की कोशिश न करे। जो निर्दम्भ, निर्भय हो सहज स्वभाव से काम नहीं कर रहा है और केवल भय से प्रेरित होकर हाथ-पाँव हिला रहा है, वह आतंक में काम कर रहा है, ऐसे काम करने वाले के कार्य में सुन्दरता नहीं पैदा हो सकती, महत्त्वपूर्ण प्रेरणा नहीं जग सकती। एक महान् उदात्त वचन है-"यत्र विश्वं भवत्येकनोड़म् ।"-सारा भूमण्डल एक घोंसला है तथा हम सब उसमें पक्षी के रूप में है। फिर कौन भूमि है कि जो हमारी न हो, जहाँ हम न जाएँ ? समस्त भूमण्डल मनुष्य का वतन है और वह जहाँ कहीं भी जाए या रहे, सब के साथ घुल-मिल कर एकरूप हो कर रहे । उसके लिए कोई पराया न हो। जो इस प्रकार की भावना को अपने जीवन में स्थान देगा, वह अपने जीवन-पुष्प को सौरभमय बनाएगा। गुलाब का फूल टहनी पर है, तब भी महकता है और टूटकर अन्यन्न जाएगा, तब भी महकता रहेगा। महक ही उसका जीवन है, उसका प्राण है। सहज-भाव से अपने कर्तव्य को निभाने वाला मनष्य सिर्फ अपने-ग्रापको. अपने कर्तव्य के औचित्य को देखता है। उसकी दष्टि दूसरों की ओर नहीं जाती। कौन व्यक्ति मेरे सामने है अथवा किस समाज के भीतर मैं हूँ, यह देखकर वह काम नहीं करता। सूने पहाड़ में जब वनगुलाब खिलता है, महकता है, तो क्या उसके विकास को देखने वाला और महक को सूंघने वाला पास-पास में कोई होता है ? परन्तु, गुलाब को इसकी कोई परवाह नहीं कि कोई उसे आदर देने वाला है या नहीं, भ्रमर है या नहीं। गुलाब जब विकास की चरम सीमा पर पहुँचता है, तो अपने-आप खिल उठता है। उससे कोई पूछे--तेरा उपयोग करने वाला यहाँ कोई नहीं है, फिर तू क्यों वृथा खिल रहा है ? क्यों अपनी महक लुटा रहा है ? गुलाब जवाब देगा-कोई है या नहीं, इसकी मुझको चिन्ता नहीं। मेरे भीतर उल्लास आ गया है, विकास आ गया है और मैंने महकना शुरू कर दिया है। यह मेरे बस की बात नहीं है। इसके बिना मेरे जीवन की और कोई गति ही नहीं है। यही तो मेरा जीवन है। बस, यही भाव मनुष्य में जागृत होना चाहिए। वह सहज भाव से अपना कर्तव्य पूरा करे और इसी में अपने जीवन की सार्थकता समझे। - इसके विपरीत, जब मनुष्य स्वतः समुद्भूत उल्लास के भाव से अपने कर्तव्य और दायित्व को नहीं निभाता, तो चारों ओर से उसे दबाया और कुचला जाता है। इस प्रकार एक तरह की गंदगी और बदब फैलती है। आज दुर्भाग्य से समाज और देश में सर्वत्र गन्दगी और बदबू ही नजर आ रही है और इसीलिए अाज के मनुष्य का जीवन अत्यन्त पामर जीवन बना रहता है। भगवत्ता : महावीर को दृष्टि में २८३ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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