SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतः धर्म, और कुछ नहीं, आत्मा का ही अपना स्वभाव है। धर्मशास्त्र की वाणी मनुष्य की सुप्त शक्तियों को जगाती है। किसी सोए हुए व्यक्ति को जगाया जाता है, तो यह जगाना बाहर से नहीं डाला जाता । जागने का भाव बाहर पैदा नहीं किया जाता । जागना अन्दर से होता है । शास्त्रीय, दार्शनिक दृष्टि से जगाने के लिए आवाज देने का अर्थ है-सोई हुई चेतना को उद्बुद्ध कर देना । सुप्त - चेतना का उद्बोधन ही जागृति है । यह जागृति क्या है ? कान में डाले गए शब्दों की भाँति जागृति भी क्या बाहर से डाली गई है ? नहीं । जागृति बाहर से नहीं डाली गई, जागने की शक्ति तो अन्दर में ही है । जब मनुष्य सोया होता है, तब भी वह छिपे तौर पर उसमें विद्यमान रहती है । स्वप्न में भी मनुष्य के भीतर निरन्तर चेतना दौड़ती रहती है, और सूक्ष्म चेतना के रूप में अपना काम करती रहती है। इस प्रकार जब जागृति सदैव विद्यमान रहती है, तो समझ लेना होगा कि जागने का भाव बाहर से भीतर नहीं डाला गया है । सुषुप्ति भी पर्दे की तरह जागृति को प्राच्छादित कर लेती है । वह पर्दा हटा कि मनुष्य जाग उठा । हमारे प्राचार्यों ने दार्शनिक दृष्टिकोण से कहा है कि मनुष्य अपने-आप में एक प्रेरणा है। मनुष्य की विशेषताएँ अपने-आप में अपना अस्तित्व रखती हैं। शास्त्र का या उपदेश का सहारा लेकर हम जीवन का सन्देश बाहर से प्राप्त नहीं करते, वरन् वासनाओं और दुर्बलताओं के कारण हमारी जो चेतना अन्दर सुप्त है, उसी को जागृत करते हैं । मनुष्य की महत्ता का आधार : मनुष्य की महिमा ग्राखिर किस कारण है ? क्या सप्त धातुत्रों के बने शरीर के कारण है ? मिट्टी के इस ढेर के कारण है ? नहीं, मनुष्य का शरीर तो हमें कितनी हो बार मिल चुका है और बहुत सुन्दर मिल चुका है, किन्तु मनुष्य का शरीर पाकर भी मानवता का जीवन नहीं पाया, तो क्या पाया ? और जिसने मानव-तन के साथ मानवता को भी पाया, वह यथार्थ में कृतार्थ हो गया । हम पहली बार ही मनुष्य बने हैं, यह कल्पना करना दार्शनिक दृष्टि से भयंकर भूल है। इससे बढ़कर और कोई भूल नहीं हो सकती। जैन-धर्म ने कहा है कि आत्मा अनन्त अनन्त बार मनुष्य बन चुकी है और इससे भी अधिक सुन्दर तन पा चुकी है, किन्तु मनुष्य का न पा लेने से ही मनुष्य-जीवन के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। जब तक आत्मा नहीं जागती है, तब तक मनुष्य शरीर पा लेने का भी कोई मूल्य नहीं है । यदि मनुष्य के रूप में तुमने मानवोचित आचरण नहीं किया, तो यह शरीर तो मिट्टी का पुतला ही है ! यह कितनी ही बार लिया गया है और कितनी ही बार छोड़ा गया है ! भगवान् महावीर ने कहा है- "मनुष्य होना उतनी बड़ी चीज नहीं, बड़ी चीज है, मनुष्यता का होना । मनुष्य होकर जो मनुष्यता प्राप्त करते हैं, उन्हीं का जीवन वरदान - रूप है ।"" नर का आकार तो अमुक अंश में बन्दरों को भी प्राप्त है । इसीलिए बन्दरों को संस्कृत भाषा में वानर कहते हैं । हमारे यहाँ एक शब्द आया है - 'द्विज' । एक तरफ साधु या व्रतधारक गृहस्थ are को भी द्विज कहते हैं और दूसरी तरफ पक्षी को भी द्विज कहते हैं । पक्षी पहले अण्डे के रूप में जन्म लेता है । अण्डा प्रायः लुढ़कने के लिए है, टूट-फूट कर नष्ट हो जाने के लिए है। यदि वह नष्ट न हुआ और सुरक्षित भी बना रहा, तब भी वह उड़ नहीं सकता। अंडे के पक्ष में उड़ने की कला का विकास नहीं हुआ है। यदि भाग्य से डा सुरक्षित बना रहता है और अपने विकास का समय पूरा कर लेता है, तब अण्डे का खोल १. चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो । माणुसतं सुई सद्धा, संजमम्मि य भगवत्ता : महावीर की दृष्टि में Jain Education International वीरियं । । - - उत्तराध्ययन ३११ For Private & Personal Use Only २८१ www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy