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________________ है, न ऊँचा पद तथा न परिवार ही। वह रोता रहता है और ये सब-के-सब व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं। किन्तु, कोई-कोई महान् व्यक्ति उस समय भी मुस्कराता हुआ जाता है, रोना नहीं जानता है ! अपितु एक विलक्षण स्फूर्ति के साथ संसार से विदा होता है। तो बताएँ उसे कौन रोशनी देता है ? संसार के सारे सम्बन्ध टुट रहे हैं, एक कौड़ी भी साथ नहीं जा रही है और शरीर की हड्डी का एक टुकड़ा भी साथ नहीं जा रहा है, बुद्धि-बल भी वहीं समाप्त हो जाता है, फिर भी वह संसार से हसता हुआ विदा होता है ! इससे स्वतः स्पष्ट है कि यहाँ सत्य का अलौकिक बल ही उसे अपराजित बल प्रदान करता है। विश्य का विधावक तत्त्व : सत्य : सत्य धर्म का प्रकाश अगर हमारे जीवन में जगमगा रहा है, तो हम दूसरे की रक्षा करने के लिए अपने अमूल्य जीवन को भेंट देकर और मृत्यु का आलिंगन करके भी संसार से मुस्कराते हुए विदा होते हैं। यह प्रेरणा और यह प्रकाश सत्य धर्म के सिवा और कोई देने वाला नहीं है। सत्य जीवन की समाप्ति के पश्चात् भी प्रेरणा प्रदान करता है। हमारे आचार्यों ने कहा है-- "सत्येन धार्यते पृथ्वी, सत्येन तपते रविः। सत्येन बाति बायुश्च, सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥" कहने को तो लोग कुछ भी कह देते हैं। कोई कहते हैं कि जगत् साँप के फन पर टिका है, और किसी की राय में बैल के सींग पर । किन्तु, ये सब कल्पनाएँ हैं। इनमें कोई तथ्य नहीं है । तथ्य तो यह है कि इतना बड़ा विराट् संसार पृथ्वी पर टिका हुआ है। और पृथ्वी अपने-आप में सत्य पर टिकी हुई है। सूर्य समय पर ही उदित और अस्त होता है और उसी से सम्बन्धित संसार की यह अनोखी काल की घड़ी निरन्तर चलती रहती है। इसकी चाल में जरा भी गड़बड़ हो जाए, तो संसार की सारी व्यवस्थाएँ बिगड़ जाएँ। किन्तु, प्रकृति का यह सत्य नियम है कि सर्य का उदय और अस्त ठीक समय पर ही होता है। इसी प्रकार यह वायु भी केवल सत्य के बल पर ही चल रही है। जीवन की जितनी भी साधनाएँ हैं, वे चाहे प्रकृति की हों या चैतन्य की हों, सब की सब अपने आप में अपने-अपने सत्य पर प्रतिष्ठित है। इस प्रकार क्या जड़ प्रकृति और क्या चेतन, सभी सत्य पर प्रतिष्ठित हैं। चेतन जब तक अपने चैतन्य शक्ति की सीमा में है, तब तक कोई गड़बड़ नहीं होने पाती। और, जड़-प्रकृति भी जब तक अपनी सत्य की धुरी पर चल रही है, सब कुछ व्यवस्थित चलता है। जब प्रकृति में तनिक-सा भी व्यतिक्रम होता है, तो भीषण संहार हो जाता है। एक छोटा-सा भूकम्प ही प्रलय की कल्पना को प्रत्यक्ष बना देता है। अतः यह कथन सत्य है कि संसार-भर के नियम और विधान सब सत्य पर ही प्रतिष्ठित है। सत्य का आध्यात्मिक विश्लेषण : भगवान महावीर के दर्शन में, सबसे बड़ी क्रान्ति, सत्य के विषय में यह रही है कि वे वाणी के सत्य को तो महत्त्व देते ही हैं, किन्तु उससे भी अधिक महत्त्व मन के सत्य को, विचार या मनन करन क सत्य को देते हैं। जब तक मन में सत्य नही पाता, मन में पवित्र विचार और संकल्प जागृत नहीं होते और मन सत्य के प्रति आग्रहशील नहीं बनता; बल्कि मन में झूठ, कपट और छल भरा होता है, तब तक वाणी का सत्य, सत्य नहीं माना जा सकता । सत्य को पहली कड़ी मानसिक पावनता है और दूसरी कड़ी है, वचन की पवित्रता। भगवत्ता : महावीर की दृष्टि में २७७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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