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________________ तुम्हें आत्मा की परमात्मा के रूप में बदलती हुई शक्ल दिखलाई देगी ! आपके अन्दर के राक्षस - क्रोध, मान माया, लोभ आदि, जो अनादि काल से अनन्त रूपों में तुम्हें तबाह करते आ रहे हैं, सहसा अन्तर्धान हो जाएँगे । अन्दर का देवता रोशनी देगा, तो अन्धकार में प्रकाश हो जाएगा । इस प्रकार वास्तव में अन्दर में ही भगवान् मौजूद है। बाहर में देखने पर कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला है । एक साधक ने कहा है - "ढूंढन चाल्यो ब्रह्म को ढूंढ फिर्यो सब ढूंढ । जो तू चाहे ढूंढनों, इसी ढूंढ में ढूंढ ॥" ब्रह्मको, ईश्वर को ढूढ़ने के लिए चला है और इस खोज में दुनिया भर की जगह तलाश कर चुका है, इधर-उधर खूब भटकता फिरा है। कभी नदियों के पानी में और कभी पहाड़ों की चोटी पर, ईश्वर की तलाश करता रहा है । किन्तु वह कहाँ है, कुछ पता है, सुना है, सोचा- समझा है ? यदि तुझे ढूढ़ना है, वास्तव में तलाश करनी है और सत्य की झाँकी अपने जीवन में उतारती है, तो सबसे बड़ा मन्दिर तेरा शरीर ही है, और उसी में ईश्वर विराजमान है। शरीर में जो आत्मा निवसित है, वही सबसे बड़ा देवता है । यदि उसको तलाश कर लिया, तो फिर अन्यत्र कहीं तलाश करने की आवश्यकता नहीं रह जाती, तुझे प्रवश्य ही भगवान् के दर्शन हो जाएँगे । संत कबीर ने कितना सही कथन किया है— "मन मथुरा, तन द्वारिका, काया काशी जान । दस द्वारे का देहरा, तामें पीव पिछान ।' यदि तूने अपने-आपको राक्षस बनाए रखा, हैवान बनाए रखा और ईश्वर को तलाश करने चला, तो तुझे कुछ भी नहीं मिलना है । संसार बाहर देवी-देवताओं की उपासना के मार्ग पर चला जा रहा है। उसके सामने भगवान् महावीर की साधना किस रूप में आई ? यदि हम जैन-धर्म के साहित्य का भली-भाँति चिन्तन करेंगे, तो मालूम होगा कि जैनधर्म देवी-देवतानों की ओर जाने के लिए है, या देवताओं को अपनी ओर लाने के लिए है ? वह देवताओं को साधक के चरणों में झुकाने के लिए है, साधक को देवताओं के चरणों में झुकाने के लिए नहीं । सम्यक् श्रुत के रूप में प्रवाहित हुई भगवान् महावीर की वाणी दशवेकालिक सूत्र के प्रारम्भ में ही बतलाती है -- "धर्म अहिंसा है। धर्म संयम है। धर्म तप और त्याग है। यह महामंगल धर्म है। जिसके जीवन में इस धर्म की रोशनी पहुँची, उसके श्रीचरणों में देवता भी प्रणत हो जाते हैं " सत्य का बल : इसका अभिप्राय यह हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर ने एक बहुत बड़ी बात संसार के सामने रखी है । तुम्हारे पास जो जन-शक्ति है, धन-शक्ति है, समय है और जो भी चन्द साधन-सामग्रियाँ तुम्हें मिली हुई हैं, उन्हें अगर तुम देवताओं के चरणों में अर्पित करने चले हो, तो उन्हें निर्माल्य बना रहे हो । लाखों-करोड़ों रुपए देवी-देवताओं को भेंट करते हो, तो भी जीवन के लिए उनका कोई उपयोग नहीं है । अतएव यदि सचमुच ही तुम्हें ईश्वर की उपासना करनी है, तो तुम्हारे आस-पास की जनता ही ईश्वर के रूप में है । छोटे-छोटे दुधमुँहे बच्चे, असहाय स्त्रियाँ और दूसरे जो दीन और दुःखी प्राणी हैं, वे सब नारायण के स्वरूप हैं, उनकी सेवा और सहायता, ईश्वर की ही प्राराधना है । १. “धम्मो मंगलमुक्किल, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणी ।। " - दशवैकालिक 919 Jain Education International भगवत्ता : महावीर की दृष्टि में For Private & Personal Use Only २७५ www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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