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________________ शुरू करता है, तो सृष्टि में प्रलय मचा देता है। निरपराध मनुष्यों के रक्त की नदियाँ बहा देता है और हड्डियों के पहाड़ खड़े कर देता है।। मन ने राम को पैदा किया, तो रावण को भी। धर्म-पुत्र युधिष्ठिर को जन्म दिया, तो दुर्योधन को भी। और, एक-दो नहीं. संसार में लाखों-करोड़ों रावण, दुर्योधन, हिटलर आदि अपने ही विकृत मन से पैदा होते रहे हैं, जिनकी प्रलयंकर हुंकार से सृष्टि कांपती रही है। मानवीय रक्त से धरा नहाती रही है। फिर सोचिए, मन जैसा शत्रु कौन होगा ? मारना या साधना: मन की इस अपार शक्ति से, अद्भुत माया से, जब आप परिचित हैं, तो सहज ही यह प्रश्न आपके सामने आ जाता है-"इस मन का क्या करें? इससे कैसे निपटें ?" इस संबंध में साधना के क्षेत्र में दो विचार चलते रहे हैं--एक विचार वह है, जो मन को सदा शत्र के रूप में ही देखता प्राया है, इसलिए वह मन को मारने की बात कहता है। वह कहता है-"मन हमारा सब से बड़ा शत्रु है, इसे यदि नहीं मारा, तो कुछ भी नहीं होगा।" 'मन मारा तन वश किया'- यही उनके स्वर हैं, भजन है। मन को मारने के लिए उसने अनेक क्रियाएँ भी बताईं। हठयोग प्राया, आसन-प्राणायाम की क्रियाएँ अाईं, मन को मूच्छित करने के अनेक कठोर-से-कठोर तरीके निकले। और, वे यहाँ तक पहुँच गये, कि मदिरा, भांग, गांजा, चरस, और धतूरा तक पी कर मन को मूच्छित करने के अशोभन प्रयत्न चल पड़े। हठयोगी साधकों ने कहा--"मन पारा है, पारे को मारने से जैसे रसायन बन जाता है, बस इसी तरह मन को मार लो, वह सिद्ध रसायन बन जाएगा।" इस प्रकार मन को मारने की यह एक साधना है, जो आज भी अनेक रूपों में चल रही है। यहाँ एक बात समझ लेने की है-साधक, साधक होता है, मारक नहीं। मारक का अर्थ होता है-'हत्यारा'। और, साधक का अर्थ होता है-'साधने वाला।' साधक मारने की बात कदापि नहीं सोच सकता। उसकी दृष्टि साधना-प्रधान होती है। प्रत्येक वस्तु को वह साधने का प्रयत्न करता है। इसलिए मन को मारने की जगह, मन को साधने की बात भी आ गई। यह मन को मारने का नहीं, साध लेने का, वश में कर लेने का विचार उत्तम एवं श्रेष्ठ विचार है, सर्व श्रेयस्कर साधना है। मन : एक बहुमूल्य उपलब्धि : विचारकों की शिकायत है-"मन बड़ा चंचल है।" किन्तु, मैं पूछता हूँ, यह शिकायत ऐसी ही तो नहीं है- हवा क्यों चलती है ? अग्नि क्यों जलती है ? पानी क्यों बरसता है ? सूर्य क्यों तपता है ? इसके विपरीत, हवा स्थिर क्यों नहीं हो जाती ? अग्नि ठंडी क्यों नहीं बन जाती ? पानी रुक क्यों नहीं जाता? सूर्य शीतलता क्यों नहीं देता? दिल धड़कना-- गतिशीलता, क्यों नहीं बन्द कर देता ? इसका समाधान है, प्रत्येक वस्तु का अपना धर्म होता है, स्वभाव होता है। हवा का धर्म चलना है। अग्नि का धर्म जलना है। और, मन का धर्म मनन करना है। मन है, तो मनन है । मनन है, तो मनुष्य है । मन, जब मनन करेगा, तो उसमें गतिशीलता आएगी ही। मन से शिकायत है, तो क्या आप मिट्टी-पत्थर आदि के रूप में तथा कीटादि के रूप में या एकेन्द्रिय आदि बिना मन वाले (असंज्ञी) प्राणी हो जाते, तो अच्छा रहता न ? न रहता बांस, न बजती बांसुरी। मन ही नहीं होता, तो उसमें चंचलता भी नहीं आती। वस्तुतः बात यह है, मन कोई परेशानी और दुविधा की चीज नहीं है। यह तो, एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। महान् पुण्य से प्राप्त होनेवाली दुर्लभ निधि है। श्रमण भगवान् महावीर ने कहा है-"बहुत बड़े पुण्य का जब उदय होता है, तो मन की प्राप्ति होती है।" सम्यक-दर्शन.किसको प्राप्त होता है-संजीको या असंजी को? जिसके पास मन नहीं है. क्या वह सम्यक्-दृष्टि हो सकता है ? नहीं, नहीं। सम्यक्-दृष्टि की श्रेष्ठतम उपलब्धि मन पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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