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________________ १७ महाव्रतों का भंग-दर्शन जैन-धर्म एवं दर्शन की आधार शिला मुख्य रूप से दो अर्थ-गंभीर शब्दों पर स्थित है। 'द्रव्य' और 'भाव'ये दो महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्द है, जिनकी परिक्रमा चिरकाल से जैनत्व की चिन्तनिका करती आ रही है। लौकिक और लोकोत्तर, दोनों ही पक्षों पर योग्य निर्णय, इन दो शब्दों के आधार पर किए जाते रहे हैं। साधना-पक्ष के तो ये दो शब्द वस्तुतः अन्तःप्राण ही हैं। इनके बिना धर्म-साधना की गति एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती। - जैन-दर्शन में चतुभंगी का बहुत अधिक महत्त्व है। स्थानांग आदि आगम तथा प्रागो मोत्तर साहित्य में अधिकतर चतभंगी के द्वारा ही वस्त-तत्त्व की यथार्थ दष्टि व्याख्यायित है। मौलिक चिन्तन की दृष्टि से चतुभंगी, धर्म और दर्शन के यथार्थ सत्य को उजागर करने के लिए, वस्तुतः एक दिव्य ज्ञान-ज्याति है। यही कारण है कि जैन वाङ्मय में द्रव्य और भाव की भी चतुभंगी प्ररूपित की गई है। दो विभिन्न पक्षों को लेकर जब चिन्तन अग्रसर होता है, तो उनके अस्तित्व तथा नास्तित्व प्रादि के रूप में चार 'भंग' अर्थात विकल्प बन जाते हैं। यही चतुर्भंगी है-- 'चतुर्णा भंगानां समाहार चतुर्भगी' अन्यत्र न जाकर प्रस्तावित द्रव्य और भाव पर ही प्रस्तुत में चतुर्भगी घटित की जाती है : १. 'द्रव्य है, परन्तु भाव नहीं है-यह एक' भंग अर्थात विकल्प है। २. 'भाव' है, परन्तु द्रव्य नहीं है'---यह दूसरा विकल्प है। ३. 'द्रव्य भी है, भाव भी है'-दोनों का सह-अस्तित्व रूप तीसरा विकल्प है। ४. 'द्रव्य भी नहीं, भाव भी नहीं'-दोनों का एक साथ नास्तित्व रूप चतुर्थ विकल्प है। जैन-दर्शन में कर्म-बन्ध से पूर्व कर्मों के आश्रव की चर्चा है। प्राश्रव कारण है, और बन्ध उसका कार्य है। साधना का मुख्य अंग प्राश्रव-निरोध है, जिसे संवर नाम से अभिहित किया गया है-'पाश्रव निरोधः संवरः' तत्त्वार्थसूत्र, ६, १। स्पष्ट है, कारण का निरोध होने पर कार्य का निरोध स्वतः ही हो जाता है--'कारणाभावे कार्याभावः।' प्राणातिपात--हिंसा, मृषावाद--असत्य, अदत्तादान-स्तेय अर्थात चौर्य, मैथुन-- अब्रह्मचर्य और परिग्रह-ये पाँच आश्रव हैं, जो कर्म-बन्ध के हतु है। इनके प्रतिपक्ष प्राणातिपातविरमण--अहिंसा, मृषावादविरमण-सत्य, अदत्तादान-विरमण--अस्तेय, मैथुन-विरमण--ब्रह्मचर्य और परिग्रहविरमण-अपरिग्रह-ये पाँच संबर हैं, जो अाश्रवनिरोध रूप है। जैन-दर्शन में हिंसा आदि पाँच पाश्रवों की निवृत्तिरूप अहिंसा आदि संवर ही मुख्यत्वेन धर्म-साधना है, जिसे व्रत नाम से अभिहित किया गया है। हिंसाऽनृत-स्तेयाऽब्रह्ममहावतों का भंग-दर्शन २४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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