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________________ सूत्रकृतांग सूत्र में भी यही अपवाद पाया है। वहाँ कहा गया है"जो मृषावाद मायापूर्वक दूसरों को ठगने के लिए बोला जाता है, वह हेय है, त्याज्य प्राचार्य शीलांक ने उक्त सूत्र का फलितार्थ निकालते हुए स्पष्ट कहा है-.-"जो परवञ्चना की बुद्धि से रहित मात्र संयम-गुप्ति के लिए कल्याण भावना से बोला जाता है, वह असत्य दोषरूप नहीं है, पाप-रूप नहीं है।" अस्तेय का उत्सर्ग और अपवाद : उत्सर्ग मार्ग में भिक्षु के लिए घास का एक तिनका भी अग्राह्य है, यदि वह स्वामीद्वारा प्रदत्त हो तो। कितना कठोर व्रत है। अदत्तादान न स्वयं ग्रहण करना, न दूसरों से ग्रहण करवाना और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन ही करना । ४५ परन्तु, परिस्थिति विकट है, अच्छे-से-अच्छे साधक को भी आखिर कभी झुक जाना पड़ता ही है। कल्पना कीजिए, भिक्षु-संघ लंबा बिहार कर किसी अज्ञात गाँव में पहुंचता है, स्थान नहीं मिल रहा है, बाहर वृक्षों के नीचे ठहरते हैं, तो भयंकर शीत है, अथवा जंगली हिंसक पशुओं का उपद्रव है। ऐसी स्थिति में शास्त्राज्ञा है कि "बिना प्राज्ञा लिए ही योग्य स्थान पर ठहर जाएँ और ठहरने के पश्चात् प्राज्ञा प्राप्त करने का प्रयत्न करें।" ब्रह्मचर्य का उत्सर्ग और अपवाद : भिक्षु का यह उत्सर्ग मार्ग है, कि वह अपने ब्रह्मचर्य महाव्रत की रक्षा के लिए एक दिन की नवजात कन्या का भी स्पर्श नहीं करता। परन्तु, अंपवाद रूप में वह नदी में डूबती हुई अथवा क्षिप्तचित्त आदि भिक्षुणी को पकड भी सकता है। इसी प्रकार यदि रात्रि आदि में सर्पदंश की स्थिति हो, और अन्य कोई उपचारका मार्ग न हो, तो साधु स्त्री से और साध्वी पुरुष से अवमार्जन आदि स्पर्श-सम्बन्धित चिकित्सा कराए, तो वह कल्प्य है। उक्त अपवाद में कोई प्रायश्चित्त नहीं है-'परिहारं च से न पाउणइ । - साध या साध्वी के पैर में काँटा लग जाए, अन्य किसी भी तरह निकालने की स्थिति न हो, तो परस्पर एक-दूसरे से निकलवा सकते हैं। . कथित उद्धरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि साधक-जीवन में जितना महत्त्व उत्सर्ग का है, अपवाद का भी उतना ही महत्त्व है। उत्सर्ग और अपवाद में से किसी का भी एकान्तत: न ग्रहण है, न परित्याग। दोनों ही यथाकाल धर्म है, ग्राह्य है। दोनों के ४३. "सादियं ण मुसं बया, एस धम्मे बुसीमओ।"--सूत्र कृतांग, १, ८, १६ ४४. यो हि परवञ्चनार्थ समायो मृषावादः स परिहीयते । यस्तु संयमगुप्त्यर्थ “न मया मगा उपलब्धा" इत्यादिकः स न दोषाय । --सूत्रकृतांग वृत्ति १, ८, १९ ४५. चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्तं पि, उग्गहंसि प्रजाइया ।।--दशवकालिक, ६, १४ ४६. कप्पइ निगंथाण वा निग्गयीण वा पुन्वामेव ओग्गहं अणुन्नवेत्ता तओ पच्छा ओगिण्हित्तए। ग्रह पूण जाणेज्जा-इह खलु निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा नो सुलभे पाडिहारिए सेज्जासंथारए त्ति क₹ एवं ण्हं कप्पइ पुवामेव ओग्गहं ओगिम्हित्ता तओ पच्छा अणुन्नवेत्तए । 'मा वहउ अज्जो', बइ-अणुलोमेणं अणुलोमेयत्वे सिया। व्यवहारसूत्र ८, ११। ४७. बृहत्कल्प सूत्र उ० ६ सू० ७-१२ और स्थानांग सूत्र, षष्ठ स्थान ४८. व्यवहार सून उ०५ सू० २१ ४६. बहत्कल्प सूत्र उ०६ सू०३ उत्सर्ग और अपवाद : दोनों ही मार्ग २४३ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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