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________________ “साधक का देह संयमहेतुक है, संयम के लिए है। यदि देह ही न रहा, तो फिर संयम कैसे रहेगा? अतएव संयम की साधना के लिए देह का परिपालन इष्ट है ।"२५ यह वाणी आज के किसी भौतिकवादी की नहीं है, अपितु सुदूर अतीत युग के उस महान अध्यात्मवादी की है, जो आध्यात्मिकता के चरम शिखर पर पहुँचा हा साधक था। बात यह है कि अध्यात्मवाद कोई अंधा आदर्श नहीं है। वह आदर्श के साथ यथार्थ का भी उचित समन्वय करता है। उसके यहाँ एकान्त पक्षाग्रह-जैसी कोई बात नहीं है। मुख्य प्रश्न है कारण और अकारण का। प्राचार्य जिनदास की भाषा में, साधक के लिए अकारण कुछ भी अकल्पनीय अनुज्ञात नहीं है, और सकारण कुछ भी अकल्पनीय निषिद्ध नहीं है । ५ यदि स्पष्ट शब्दों में निश्चयनय के माध्यम से कहा जाए तो, साधक, न जीवन के लिए है और न मरण के लिए है। वह तो अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सिद्धि के लिए है। अत: जिस जिस प्रकार ज्ञानादि की सिद्धि एवं वद्धि होती हो, उसे उसी प्रकार करते रहना चाहिए, इसी में संयम है।" यदि, जीवन से ज्ञानादि की सिद्धि होती हो, तो जीवन की रक्षा करते हुए वैसा करना चाहिए। और, यदि मरण से ही ज्ञानादि अभीष्ट की सिद्धि होती हो, तो मरण भी साधक के लिए शिरसा श्लाघनीय है। उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में भी यही बात है। साधक, न केवल उत्सर्ग के लिए है और न केवल अपवाद के लिए है। वह दोनों के लिए है, मात्र शर्त है--साधक के ज्ञानादि गुणों की अभिवृद्धि होनी चाहिए। जीवन और मरण की कोई खास समस्या न भी हो, फिर भी यदि सन्मतितर्क आदि महान् दर्शन-प्रभावक ग्रन्थों का अध्ययन करना हो, चारित्र की रक्षा के लिए इधर-उधर सुदूर भू प्रदेश में क्षेत्र परिवर्तन करना हो, तब यदि गत्यन्तराभाव होने से अकल्पनीय आहारादि का सेवन कर लिया जाता है, तो वह शुद्ध ही माना जाता है, अशुद्ध नहीं। शुद्ध का अर्थ है, इस सम्बन्ध में साधक को कोई प्रायश्चित्त नहीं पाता।* कोई भी देख सकता है, जैन-धर्म आदर्शवादी होते हुए भी कितना यथार्थवादी धर्म है। उसके यहाँ बाह्य विधि-विधान हैं, और बहुत हैं, किन्तु वे सब किसी योग्य गृहपति के गृह की प्राचीर के समान हैं। साधक उनमें से अन्दर और बाहर यथेष्ट प्रा-जा सकता है । वे कोई कारागार की अनुल्लंघनीय प्राचीर नहीं है कि साधक उसके अन्दर बन्दी हो जाए, और कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो, इधर-उधर अन्दर-बाहर आ-जा ही न सके। . जैन-धर्म भाव-प्रधान धर्म है। उसका अनुष्ठान, सर्वथा अपरिवर्तनीय जड़ अनुष्ठान नहीं, किन्तु क्रियाशील परिणामी चैतन्य अनुष्ठान है। मूल में जैन-परम्परा को बाह्य दृश्यमान विधि-विधानों का उतना आग्रह नहीं है, जितना कि अन्तरंग की शुद्ध भावनात्मक परिणति का आग्रह है। यही कारण है कि उसके दर्शनकक्ष में मोक्ष के हेतुओं की कोई बंधी-बंधाई नियत रूपरेखा नहीं है, इयत्ता नहीं है। जो भी संसार के हेतु हैं, वे सब सत्यनिष्ठ साधक के लिए मोक्ष २५. संजमहेउ देहो धारिज्जइ सो कओ उ तदभावे । संजम-फाइनिमित्तं, देहपरिपाला इट्टा ।।४७।।----ओपनियुपित . २६. णिक्कारण अकप्पणिज्जन किं चि अणुण्णायं, अववायकारणे उप्पण्णे अकप्पणिज्जं ण कि चि पडिसिद्धं । निच्छयववहारतो एस तित्थकराणां।......कज्जति अबवादकारणं, तेण जति पडिसेवति तहा बि सच्चा भवति, सच्चो ति संजमो॥ - -निशीथचणि, ५२४८ २७. कज्जं णाणादीयं उस्सग्गववायओ भवे सच्चं। तं तह समायरंतो, तं सफलं होइ सव्वं पि ।।--निशीथभाष्य, ५२४६ २८. दंसणपभावगाणं, सट्टाणद्राए सेवती जंतु। ___णाणे सुत्तत्थाणं, चरणेसण-इस्थिदोसा वा ॥४८६।। * दंसणपभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-सम्मतिमादि गेण्हतो असंथरमाणोज अकप्पियं पडिसेवति, जयणाए तत्थ सो सुद्धो अपायच्छित्ती भवतीत्यर्थः । णाणेति णाणणिमित्तं सुत्तं प्रत्थं वा गेण्हमाणो, तत्थ वि अकप्पिय असंथरे पडिसेवंतो सूखो। चरणे त्ति जत्थ खेत्ते एसणादोसा इत्थिदोसा वा ततो खेत्तातो चारित्नार्थिना निर्गन्तव्यं, ततो निग्गच्छमाणो जं अकप्पियं पडिसेवति जयणाते तत्थ सूखो। -निशीथ चूर्णि, ४८६ जाणार २३८ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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