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________________ यदि कर्ता विज्ञ है, कार्य-विधि का मर्मज्ञ है, तो वह देश, काल और साधनों के औचित्य का भली-भाँति ध्यान रखेगा, फलतः अपने अभिलषित कार्य में सफल ही होगा, असफल नहीं । २ अब एक प्रश्न और है कि आखिर गीतार्थ कहाँ तक साथ रह सकता है ? कल्पना कीजिए, साधक ऐसी स्थिति में उलझ गया है कि वहाँ उसके लिए गीतार्थ का कोई भी निर्देशन प्राप्त करना संभव है । उक्त विकट स्थिति में वह क्या करे, और क्या न करे ? क्या वह नवागत स्थिति के अनुकूल परम्परागत स्थिति में कुछ योग्य फेर फार नहीं कर सकता ? उत्तर है कि क्यों नहीं कर सकता । अन्ततोगत्वा साधक स्वयं ही अपने द्रव्य, क्षेत्र, Share और भाव के अनुसार निर्णय कर सकता है कि वह कब उत्सर्ग पर चले और कब अपवाद पर ? तत्त्वतः अपनी मति ही मति है, वही युक्त एवं प्रयुक्त की वास्तविक निर्णायका है । यह ठीक है कि गीतार्थ गुरु, मूल श्रागम, भाष्य, चूर्णि और अन्य श्राचार ग्रन्थ, काफी लम्बी दूर तक साधक का निर्देशन करते हैं। परन्तु, अन्ततः साधक पर ही सब कुछ छोड़ना होता है, और वह छोड़ भी दिया जाता है। एक पिता अपने नन्हे शिशु को हाथ पकड़ कर चलाता है, चलना सिखाता है । परन्तु, कुछ समय बाद वह शिशु को उसकी अपनी शक्ति पर ही छोड़ देता है न ? धर्म, आत्मा की साक्षी पर ही आधार रखता है । अन्त में अपने अन्तर्तम का भाव ही काम आता है ! अस्तु, साधक जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हो वैसा करे, किन्तु सर्वत्र अपनी हार्दिक प्रामाणिकता और सत्याचरणता को प्रखण्ड रखे । जीवन में सत्य के प्रति उन्मुखता का रहना ही सब कुछ है । कर्तव्य और अकर्तव्य, बाहर में कुछ नहीं है । saar मूल अन्दर की मनोभूमि में है । वहाँ यदि पवित्रता है, तो सब पवित्र है, अन्यथा सबकुछ पवित्र है । अपवाद दूषण नहीं, अपितु भूषण : यद्यपि, उत्सर्ग, अपवाद दोनों का लक्ष्य एक है, इस पर काफी प्रकाश डाला जा चुका है । फिर भी अपवाद के सम्बन्ध में सर्व साधारण की ओर से यह प्रश्न प्रायः खड़ा ही रहता है कि क्या उत्सर्ग को छोड़ कर अपवाद में जाने वाले साधक के स्वीकृत व्रतों का भंग नहीं होता ? क्या इस दशा में साधक को पतित नहीं कहा जा सकता ? यह प्रश्न व्रतों के बाह्यकार और उसके बाह्य भंग पर से खड़ा होता है। प्रायः जनता की आँखें बाह्य के स्थूल दृश्य पर ही अटक कर रह जाती है, किन्तु साधक स्थूल ही नहीं, सूक्ष्म भी है, इतना सूक्ष्म कि जिसका आकार-प्रकार स्थूल से कहीं बड़ा है, बहुत बड़ा है। साधक के उसी सूक्ष्म अन्तर में उक्त प्रश्न का सही समाधान प्राप्त हो सकता है । आचार्य संघदास गणी एक रूपक के द्वारा प्रस्तुत प्रश्न का बड़ा ही सुन्दर समाधान उपस्थित करते हैं---"एक यात्री किसी अभीष्ट लक्ष्य की ओर त्वरित गति से चला जा रहा है । वह यथाशक्ति शीघ्र गति से दौड़ता है, ताकि शीघ्र ही गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाए । परन्तु चलता हुआ थक जाता है, आगे मार्ग की और अधिक विषमताओं के कारण चल नहीं पाता है, अतः वह बीच में कहीं विश्राम करने लग जाता है। यदि वह यात्री अपने श्रहं के कारण उचित विश्राम न करे, क्लान्त होने पर भी हठात् चलता ही रहे, तो स्वस्थ नहीं रह सकता। कुछ दूर जाकर, वह इतना अधिक क्लान्त हो जाएगा कि अवश्य ही मूर्च्छा खाकर गिर पड़ेगा। संभव है, प्राणान्त भी हो जाए। ऐसी स्थिति में, जिस लक्ष्य के लिए तन-तोड़ दौड़-धूप की जा रही थी, वह सदा के लिए अगम्य ही रह जाएगा । अस्तु, यात्री का विश्राम भी चलने के लिए ही होता है, बैठे रहने के लिए नहीं। वह विश्रान्ति लेकर, तरोताजा होकर पुनः दुगुने वेग से चलता है, बैठ जाने के फलस्वरूप होने वाले विलम्ब के समय को शीघ्र ही २२. संपत्ति य विपत्ती थ, होज्ज कज्जेसु कारणं पप्य । अणुवायतो विवती, २३६ Jain Education International संपत्ती कालुवाएहि ॥ २४६ ॥ -- बृहत्कल्प भाष्य For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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