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________________ ऋषि ने शान्तभाव से कहा - " बन्धुओं, तुम्हारा सोचना ठीक है । परन्तु, मेरी एक मर्यादा है । अन्न अन्यत्र मिल नहीं रहा था और इधर मैं भूख से इतना अधिक व्याकुल था कि प्राण कंठ में लगे थे और अधिक सहन करने की क्षमता समाप्त हो चुकी थी । अतः मैंने जूठा अन्नही अपवाद की स्थिति में स्वीकार कर लिया। अब रहा जल का प्रश्न ? वह तो मुझे मेरी मर्यादा के अनुसार प्रन्यत्र शुद्ध (सुच्चा ) मिल सकता है। अतः मैं व्यर्थ ही जूठा जल क्यों पीऊँ ?" उत्सर्ग और अपवाद कब और किस सीमा तक ? इस प्रश्न का कुछ-कुछ समाधान ऊपर के कथानक से हो जाता है। संक्षेप में— जब तक चला जा सकता है, तब तक उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना चाहिए। और, जबकि चलना सर्वथा दुस्तर हो जाए, दूसरा कोई भी इधर-उधर बचाव का मार्ग न रहे, तब अपवाद मार्ग पर उतर आना चाहिए। श्रीर, ज्योंही स्थिति सुधर जाए, पुनः तत्क्षण उत्सर्ग मार्ग पर लौट आना चाहिए । उत्सर्ग और अपवाद के अधिकारी : उत्सर्ग मार्ग सामान्य मार्ग है, अतः उस पर हर किसी साधक को सतत चलते रहना है । " गीतार्थ को भी चलना है और अगीतार्थ को भी। बालक को भी चलना है और तरुण तथा वृद्ध को भी । स्त्री को भी चलना है और पुरुष को भी । यहाँ कोन चले और कौन नहीं, इस प्रश्न के लिए कुछ भी स्थान नहीं है। जब तक शक्ति रहे, उत्साह रहे, प्रपत्ति काल में किसी प्रकार की ग्लानि का भाव न आए, धर्म एवं संघ पर किसी प्रकार का उपद्रव न हो, अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र की क्षति का कोई विशेष प्रसंग उपस्थित न हो, तब तक उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना है, अपवाद मार्ग पर नहीं । परन्तु, अपवाद मार्ग की स्थिति उत्सर्ग से भिन्न है। अपवाद मार्ग पर कभी कदाचित ही चला जाता है । अपवाद की धारा तलवार की धारा से भी कहीं अधिक तीक्ष्ण है । इस पर हर कोई साधक और वह भी हर किसी समय नहीं चल सकता । जो साधक गीतार्थ है, आचारांग आदि आचार संहिता का पूर्ण अध्ययन कर चुका है, निशीथ सूत्र आदि छेद सूत्रों के सूक्ष्मतम मर्म का भी ज्ञाता है, उत्सर्ग और अपवाद पदों का अध्ययन ही नहीं, अपितु स्पष्ट अनुभव रखता है, वही अपवाद के स्वीकार या परिहार के सम्बन्ध में ठीक-ठीक निर्णय दे सकता है । जिस व्यक्ति को देश का ज्ञान नहीं है कि यह देश कैसा है, यहाँ की क्या दशा है, यहाँ क्या उचित हो सकता है और क्या अनुचित, वह गीतार्थ नहीं हो सकता । Star ज्ञान भी आवश्यक है । एक काल में एक बात संगत हो सकती है, तो दूसरे काल में वही प्रसंगत भी हो सकती है । क्या ग्रीष्म और वर्षा काल में पहनने योग्य हलकेफुलके वस्त्र शीतकाल में भी पहने जा सकते हैं ? क्या शीतकाल के योग्य मोटे ऊनी कंबल जेठ की तपती दुपहरी में भी परिधान किए जा सकते हैं ? यह एक लौकिक उदाहरण है । साधक के लिए भी अपनी व्रत-साधना के लिए काल की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता का परिज्ञान अत्यावश्यक है। व्यक्ति की स्थिति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। दुर्बल और सबल व्यक्ति की तनुस्थिति मनःस्थिति में अन्तर होता है । सबल व्यक्ति बहुत अधिक समय तक प्रतिकूल परिस्थिति से संघर्ष कर सकता है, जब कि दुर्बल व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता। वह शीघ्र ही प्रतिकूलता के सम्मुख प्रतिरोध का साहस खो बैठता है । अतः साधना के क्षेत्र में व्यक्ति की स्थिति का ध्यान रखना भी प्रावश्यक है। देश और काल आदि की एकरूपता होने पर भी, विभिन्न १८. सखड्ग- वियत्ताणं, वाहियाणं च जे गुणा । अखंड पुडिया कायब्वा तं सुणेह जहा तहा ॥ २३४ Jain Education International - दशकालिक, ६, ६ For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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