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________________ "देश, काल, क्षेत्र, पुरुष, अवस्था, उपधात और शुद्ध भावों की समीक्षा के द्वारा ही वस्तु कल्प्य-ग्राह्य होती है। कोई भी वस्तु सर्वथा एकान्त रूप से कल्प्य नहीं होती।"१२ वस्तु अपने-आप में न अच्छी है, न बुरी है। व्यक्ति-भेद से वह अच्छी या बुरी हो जाती है। प्राकाश में चन्द्रमा के उदय होने पर चक्रवाक-दम्पती को शोक होता है, चकोर को हर्ष। इनमें चन्द्रमा का क्या है ? वह चक्रवाक और चकोर के लिए अपनी स्थिति में कोई भिन्न-भिन्न परिवर्तन नहीं करता है। चक्रवाक और चकोर की अपनी मनःस्थिति भिन्न है, अतः उसके अनुसार चन्द्र अच्छा या बुरा प्रतिभासित होता है। इसी प्रकार साधक भी विभिन्न स्थिति में रहते हैं, उनका स्तर भी देश, काल आदि की विभिन्नता में विभिन्न स्तरों पर ऊँचा-नीचा होता रहता है। अतएव एक ही वस्तु एक साधक के लिए निषिद्ध, अ होती है, तो दूसरे के लिए उनकी अपनी स्थिति में ग्राह्य भी हो सकती है। परिस्थिति और तदनुसार होने वाली भावना ही मुख्य है। “याशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशि।" जिसकी जैसी भावना होती है, उसको वैसी ही सिद्धि प्राप्त होती है। लोक-भाषा में भी किवदन्ती है—"जाको रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।"अर्थात् सत्य एक ही है, वह विभिन्न देश-काल में विभिन्न मनोभावों के अनुसार विभिन्न रूपों में परिलक्षित होता रहता अग्राह्य निशीथ सूत्र के भाष्यकार इस सम्बन्ध में बड़ी ही महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं। वे समस्त उत्सर्गों और अपवादों, विधि और निषेधों, की शास्त्रीय सीमानों की चर्चा करते हुए लिखते है.---"समर्थ साधक के लिए उत्सर्ग स्थिति में जो द्रव्य निषिद्ध किए गए हैं, वे सब असमर्थ साधक के लिए अपवाद स्थिति में कारण विशेष को ध्यान में रखते हुए ग्राह्य हो जाते हैं।१३ प्राचार्य जिनदास ने निशीथ चूर्णि में उपर्युक्त भाष्य पर विवरण करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जो उत्सर्ग में प्रतिषिद्ध हैं, वे सब-के-सब कारण उत्पन्न होने पर कल्पनीय-ग्राह्य हो जाते हैं। ऐसा करने में किसी प्रकार का भी दोष नहीं है। उत्सर्ग और अपवाद का यह विचार ऐसा नहीं कि विचार जगत् के किसी एक कोने में ही पड़ा रहा हो, इधर-उधर न फैला हो। जैन साहित्य में सुदूर अतीत से लेकर बहुत आगे तक उत्सर्ग और अपवाद पर चर्चा होती रही, और वह मतभेद की दिशा में न जाकर पूर्वनिर्धारित एक ही लक्ष्य की ओर बढ़ती रही। आचार्य जिनेश्वर अपने युग के एक प्रमुख क्रियाकाण्डी प्राचार्य हुए हैं। परन्तु, उन्होंने भी शास्त्रीय विधि-निषेधों के सम्बन्ध में एकान्त का आग्रह नहीं रखा। प्राचार्य हरिभद्र के अष्टक प्रकरण पर टीका करते हुए वे चरक संहिता का एक प्राचीन श्लोक उद्धृत करते है- "देश, काल और रोगादि के कारण मानव-जीवन में कभी-कभी ऐसी अवस्था भी आ जाती है कि जिस में अकार्य कार्य बन जाता है और कार्य अकार्य हो जाता है। अर्थात् जो विधान है, वह निषेध कोटि में चला जाता है, और जो निषेध है, वह विधान कोटि में आ पहुँचता है ।"१५ उत्सर्ग और अपवाद की एकार्थ-साधनता : प्रस्तुत चर्चा में यह बात विशेषरूप से ध्यान में रखने जैसी है कि उत्सर्ग और अपवाद १२. देशं कालं पुरुषमवस्थामुपधातशुद्धपरिणामान्, प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं, नैकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम् ॥१४६।।-प्रशमरति १३. उस्सग्गेण णिसिद्धाणि, जाणि दब्वाणि संथरे मुणिणो। कारणजाए जाते, सब्वाणि वि ताणि कप्पंति ।-निशीथ भाष्य, ५२४५ १४. जाणि उस्सग्गे पडिसिज्ञाणि, उप्पण्णे कारणे सव्वाणि वि ताणि कप्पंति। ण दोसो...... ॥ -निशीथ चर्णि, ५२४५ १५. उत्पद्यते ही साऽवस्था, देशकालामयान् प्रति । यस्यामकार्यमकार्य स्यात, कर्म कार्य च वर्जयेता-मष्टकप्रकरण, २७, ५ टीका उत्सर्ग और अपवाद : दोनों ही मार्ग २३१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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