SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचार्य हरिभद्र का कथन है कि “द्रव्य क्षेत्र, काल आदि की अनुकूलता से युक्त समर्थ साधक के द्वारा किया जाने वाला कल्पनीय (शुद्ध) अन्नपानगवेषणादि-रूप उचित अनुष्ठान, उत्सर्ग है। और द्रव्यादि की अनुकूलता से रहित का यतनापूर्वक तथाविध प्रकल्प्य-सेवनरूप उचित्त अनुष्ठान, अपवाद है।"५ आचार्य मुनिचन्द्र सूरि, सामान्य रूप से प्रतिपादित विधि को उत्सर्ग कहते हैं और विशेष रूप से प्रतिपादित विधि को अपवाद । अपने उक्त कथन का प्रागे चल कर वे और भी स्पष्टीकरण करते हैं कि समर्थ साधक के द्वारा संयमरक्षा के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है, वह उत्सर्ग है। और असमर्थ साधक के द्वारा संयम की रक्षा के लिए ही जो बाहर में उत्सर्ग से विपरीत-सा प्रतीता होने वाला अनुष्ठान किया जाता है, वह अपवाद है। दोनों ही पक्षों का विपर्यासरूप से अनुष्ठान करना, न उत्सर्ग है और न अपवाद, अपितु संसाराभिनन्दी प्राणियों की दुश्चेष्टा मात्र है।' प्राचार्य मल्लिषेण उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण स्पष्टीकरण करते है--"सामान्य रूप से संयम की रक्षा के लिए नवकोटि-विशुद्ध आहार ग्रहण करना, उत्सर्ग है। परन्तु यदि कोई मनि तथाविध द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-सम्बन्धी प्रापत्तियों से ग्रस्त हो जाता है, और उस समय गत्यन्तर न होने से उचित यतना के साथ अनेषणीय आदि पाहार ग्रहण करता है, यह अपवाद है। किन्तु, अपवाद भी उत्सर्ग के समान संयम की रक्षा के लिए ही होता है।" एक अन्य प्राचार्य कहते हैं--"जीवन में नियमोपनियमों की जो सर्वसामान्य विधि है, वह उत्सर्ग है। और, जो विशेष विधि है, वह अपवाद है।" कि बहुना, सभी प्राचार्यों का अभिप्राय एक ही है कि सामान्य उत्सर्ग है, और विशेष अपवाद है। लौकिक उदाहरण के रूप में समझिए कि प्रतिदिन भोजन करना, यह जीवन की सामान्य पद्धति है। भोजन के बिना जीवन टिक नहीं सकता है, जीवन की रक्षा के लिए उत्सर्गतः भोजन आवश्यक है। परन्तु, अजीर्ण आदि की स्थिति में भोजन का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। किन्हीं विशेष रोगादि की स्थितियों में भोजन का त्याग भी जीवन की रक्षा के लिए आवश्यक हो जाता है। अर्थात् एक प्रकार से भोजन का परित्याग ही जीवन हो जाता है। यह भोजन सम्बन्धी अपवाद है। इसी प्रकार अमुक पद्धति का भोजन सामान्यतः ठीक रहता है, यह भोजन का उत्सर्ग है। परन्तु, उसी पद्धति का भोजन कभी किसी विशेष स्थिति में ठीक नहीं भी रहता है, यह भोजन का अपवाद है। साधना के क्षेत्र में भी उत्सर्ग और अपवाद का यही क्रम है। उत्सर्गतः प्रतिदिन की साधना में जो नियम संयम की रक्षा के लिए होते हैं, वे विशेषतः संकटकालीन अपवाद स्थिति ५. दब्वादिएहि जुत्तस्सुस्सग्गो चचियं अणुट्ठाणं । रहियस्स तमववाओ, उचियं चियरस्स न उ तस्स ।।-उपदेश पद, गा० ७८४ ६. सामान्योक्तो विधिस्त्सर्गः। विशेषोक्तस्त्वपवादः । द्रयादियुक्तस्य यत्तदौपिचित्यन अनुष्ठा स उत्सर्गः तदरहितस्य पुनस्तदौचित्येनैव च यदनुष्ठानं सोऽपवादः । यच्चैतयोः पक्षयोविपर्यासेन अनुष्ठान प्रवर्तते, न स उत्सर्गोऽपवादो वा, किन्तु संसाराभिनन्दिसत्वचेष्टितमिति । उपदेशपद-सुखसम्बोधिनी, गा० ७८१-७८४ ७. पाहार के लिए स्वयं हिसा न करना, न करवाना, न हिंसा करने वालों का अनुमोदन करना। पाहार आदि स्वयं न पकाना, न पकवाना, न पकाने वालों का अनुमोदन करना। पाहार आदि स्वयं न खरीदना, न दूसरों से खरीदवाना, न खरीदने वालों का अनुमोदन करना। --स्थानांङ्ग सूत्र ६, ३, ६८१ ८. यथा जैनानां संयमपरिपालनार्थं नवकोटिविशद्धाहारग्रहणमत्सर्गः । तथाविध द्रव्य-क्षेत्र-कालभावापत्सु च निपतितस्य गत्यन्तराभावपंचकादियतनया अनेषणीयादिग्रहणमपवादः। सोऽपि च मंयमपरिपालनार्थमेव । -स्यावाद मञ्जरी, कारिका ११ ६. सामान्योक्तो विधिरुत्सर्ग:, विशेषोक्तो विधिरपवादः।-दर्शन Ko उत्सर्ग और अपवाद : दोनों ही मार्ग २२६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy