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________________ ग्रन्थ : संकलना मात्र : मानव मस्तिष्क में विचारों की यह प्रतिबद्धता ग्रन्थ ने ही पैदा की है। ग्रन्थ का अर्थ ही है-ग्रन्थि ! गाँठ ! जैन भिक्षु को, श्रमण को निर्ग्रन्थ कहा गया है। अर्थात् उसके भीतर में मोह, आसक्ति आदि की कोई गाँठ नहीं होती, ग्रन्थि नहीं होती। गाँठ तब डाली जाती है, जब कुछ जोड़ना होता है, संग्रह करना होता है। कुछ इधर से लिया, कुछ उधर से लिया, गांठ डाली, जुड़ गया, या जोड़ लिया, और गाँठ लगाई-इस प्रकार लेते गए, जोड़ते गए और ग्रन्थ तैयार होते गए। ग्रन्थ शब्द के इसी भाव को हिन्दी की 'गथना' क्रिया व्यक्त करती है। माली जब फूलों को धागे में पिरोता है, तब एक फूल लेता है, गाँठ डाल लेता है, फिर दूसरा फूल लेता है और फिर गाँठ डाल लेता है-इस प्रकार पिरोता जाता है, गाँठे डालता जाता है और माला तैयार हो जाती है। बिना गांठ डाले माला तैयार नहीं होती। इसी प्रकार विचारों की गाँठे जोड़े बिना ग्रन्थ भी कैसे तैयार होगा? इसका अभिप्राय यह है कि ग्रन्थ के लिए मौलिक चिंतन की अपेक्षा नहीं रहती, वह तो एक संकलना मान है, विचारों एवं मान्यताओं के मनकों की माला है, संग्रहीत विचारों की गठरी है। शास्त्र के सम्बन्ध में यह बात नहीं हो सकती। शास्त्र : सत्य का साक्षात् दर्शन : शास्त्र, सत्य का साक्षात् दर्शन होता है। क्योंकि सत्य सदा अखण्ड, संपूर्ण एवं समग्र मानव चेतना को स्पर्श करने वाला होता है। हमारी संस्कृति में 'सत्य' के साथ 'शिव' संलग्न रहता है। सत्य के दर्शन में सृष्टि की समग्र चेतना के कल्याण की छवि प्रतिबिम्बित रहती है। भौतिक विज्ञान भी सत्य का उद्घाटन करता है, किन्तु उसके उद्घाटन में केवल बौद्धिक स्पर्श होता है, समग्र चैतन्य की शिवानुभति का आधार नहीं होता, इसीलिए मैं उसे धर्मशास्त्र की सीमा में नहीं मान सकता।। शास्त्र के सम्बन्ध में हमारी यह भी एक धारणा है कि शास्त्र प्रार्ष वाणी अर्थात् ऋषि की वाणी है। यास्क ने ऋषि की परिभाषा की है, सत्य का साक्षातद्रष्टा, ऋषि होता है-- ऋषिदर्शनात् । हर साधक ऋषि नहीं कहलाता, किन्तु अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा और तर्कशुद्ध ज्ञान के द्वारा जो सत्य की स्पष्ट अनुभूति कर सकता है, वही वस्तुतः ऋषि है। इसलिए वेदों में ऋषि को मंत्रद्रष्टा के रूप में अभिहित किया गया है। हाँ, तो मैं कहना यह चाहता हूँ कि भारत की वैदिक एवं जैन परम्परा में पार्षवाणी का अर्थ साक्षात् सत्यानुभूति पर आधारित शिवत्व का प्रतिपादक मौलिक ज्ञान होता है। शास्त्र का उपदेष्टा आँख मूंद कर उधार लिया हुआ शिवत्वशून्य ज्ञान नहीं देता। उसका सर्वजन हिताय उपदेश अन्तःस्फूर्त निर्मल ज्ञान के प्रवाह से उद्भूत होता है, जिसका सम्बन्ध सीधा प्रात्मा से होता है। आत्मा के अनन्त ज्ञान, दर्शन स्वरूप आलोक को व्यक्त करना एवं आत्मस्वरूप पर छाई हुई विभाव-परि- णतियों की मलिनता का निवारण करना-यही पार्षवाणी का मुख्य प्रतिपाद्य होता है। जैन-परम्परा में महान् प्रतिनिधि आगमवेत्ता आचार्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण से जब पूछा गया कि शास्त्र किसे कहते हैं ? तो उन्होंने बताया--- "सासिज्जए तेण तहि वा नेयमायावतो सत्यं ।"३ १. निरुक्त २।११ २. साक्षात्कृतधर्माणो ऋषयो बभवः ।--निरुक्त १।२० ३. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १३८४ शासु अनशिष्टौ शास्यते ज्ञेयमात्मा वाऽनेनास्मादस्मिन्निति वा शास्त्रम---टीका २१४ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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