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________________ विलास और ऐश्वर्य के दास है। तुम भी संसार के इन्हीं दासों में से एक हो। तुम अपनी इन्द्रिय, मन और इच्छात्रों के इशारे पर क्रीतदास की तरह नाच रहे हो, तो फिर दूसरों के नाथ किस प्रकार बन सकते हो? जो स्वयं अपने विकारों के समक्ष दब जाता है, अपने आवेगों के समक्ष हार जाता है, वह किस प्रकार दूसरों पर शासन कर सकता है ? जर तुम अपने मन की गुलामी से भी छुटकारा नहीं पा सकते, तो संसार के इन क्षणभंगुर तुच्छ वैभव और ऐश्वर्य की महत्ता की क्या बात करते हो ? जिसके भरोसे तुम दूसरों के नाथ बनना चाहते हो। यह भौतिक-वैभव तो मेरे पास भी कुछ कम न था। पर, यह नश्वर था, इसलिए छोड़ आया हूँ। अनाथी मुनि और राजा श्रेणिक का यह संवाद जीवन-विजय का संवाद है। यह संवाद साधना की उस स्थिति पर पहुँचाता है, जहाँ भक्त को भगवान के पीछे दौड़ने की जरूरत नहीं रहती, बल्कि जहाँ वह होता है, वहीं अन्तर में भगवान् उतर आते हैं। अनाथ मुनि की वागी में वही भगवान् महावीर की दिव्य आत्मा बोल रही थी। उन्होंने जो संदेश श्रेणिक को दिया, वह उनका अपना नहीं, महावीर का ही संदेश था। महावीर की आत्मा स्वयं उसके अन्तर् में जागृत हो रही थी। जीवन का लक्ष्य और धर्म का संस्कार तो ऐसा ही होना चाहिए कि भगवान की ज्योति और प्रकाश साधक के अंग-अंग में सांस-सांस में प्रकाशित होने लग जाए। उसके संस्कारों का कोना-कोना उसी प्रकाश से आलोकित होने लग जाए। एक सूफी शायर ने ऐसी ही चरम दशा का चित्र उपस्थित करते हुए कहा है-- "शहरे तन के सारे दर्वाजों पे हो गर रोशनी । तो समझना चाहिए वहाँ हुकूमत इल्म की।" इस शरीर रूपी शहर के हर गली-कूचे और दरवाजों पर यदि रोशनी हो, उसका कोना-कोना जगमगाता हो, तो समझना चाहिए कि उस शरीर रूपी शहर पर आत्मा का शासन चल रहा है। वहाँ का स्वामी स्वयं घर में है और वह पूरे होश में है। उस शहर पर कोई हमला नहीं कर सकता और न ही कोई दूसरा उसका नाथ बन सकता है। इस प्रकार हमारे जीवन में धर्म का स्रोत प्रतिक्षण पद-पद पर बहता रहना चाहिए, जिससे कि आनन्द, उल्लास और मस्ती का वातावरण बना रहे। जीवन में धर्म का सामंजस्य होने के बाद, साधक को अन्यत्र कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं। मक्ति के लिए भी कहीं दूर जाना नहीं है, अपितु अन्दर की परतों को भेद कर अन्दर में ही उसे पाना है। धर्म और ध्यान : साधना, जिसे हम वीतराग साधना कहते हैं, जो वृत्तियों के दमन से या शमन से सम्बन्धित न होकर क्षपण से सम्बन्धित है, अत: वह क्षायिक साधना है। प्रश्न है, उसका मूल आधार क्या है ? वह कैसे एवं किस रूप में की जा सकती है? उक्त प्रश्न का उत्तर एक ही शब्द में दिया जा सकता है, वह शब्द है-'ध्यान ।' महावीर की साधना का प्रान्तरिक मार्ग यही था। ध्यान के मार्ग से ही वे आत्मा की गहराई में अनादिकाल से दबे प्रारह अपने अनन्त ईश्वरत्व को प्रगट कर सके. विशद्ध आध्यात्मिक सत्ता तक पहुँच सके । आध्यात्मिक साधना का अर्थ ही ध्यान है। वस्तुतः ध्यान से ही आध्यात्मिक तथ्य की वास्तविकता का बोध होता है। ध्यान जीवन की बिखरी हुई शक्तियों को केन्द्रित करता है, चैतन्य की अन्तनिहित अनन्त क्षमता का उद्घाटन करता है। ध्यान आध्यात्मिक शक्ति की पूर्णता का विस्फोट है, जीवन धर्म का उद्देश्य क्या है ? Jain Education Intemational २०१ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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