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________________ मिल गया, सद्गुणों का उपदेश मिल गया, एक तरह से कल्प वृक्ष ही मिल गया और धर्मरूप कल्पवृक्ष की शीतल छाया में प्रापा गए, तो बस आपका कर्तव्य पूरा हो गया। उसकी छाया में आना आपका कर्तव्य है, इसके बाद फल प्राप्ति के लिए प्रार्थना करने की जरूरत नहीं। छाया में आने का फल अपने आप प्राप्त हो जाता है। धर्म से दूर रहकर सिर्फ दुःखों से मुक्ति दिलाने के लिए प्रार्थना करता रहे, तो उससे कुछ मिलने का नहीं है। यदि आप धर्म की शीतल छाया में पाकर बैठ गए, तो फिर आपके भव-ताप को मिटाकर शान्ति प्रदान करने की जिम्मेदारी धर्म की है। अतः धर्म की छाया में निष्काम भाव से प्राकर बैठने की आवश्यकता है । भय एवं प्रलोभन को, फल की आशंका को दूर कर निष्काम भाव से धर्म की पावन छाया में प्रासन जमाये रहो, अपने आप दुःखों से त्राण मिल जाएगा। अन्तर का देवता : ____दार्शनिक चिन्तन क्षेत्र की एक उक्ति है कि स्वर्ग के लिए प्रयत्न करने वालों को स्वर्ग नहीं मिलता। देवताओं के पीछे भटकने वाले पर देवता प्रसन्न नहीं होते। भगवान् महावीर का जन्म जिस युग में हुआ था, उस युग में लोग दुःखों से मुक्ति पाने के लिए देवी-देवताओं की मनौती करते थे, उनकी स्तुति, सेवा आदि करके उन्हें प्रसन्न करना चाहते थे। ऐसे युग में भगवान् महावीर ने साधकों को सावधान किया था, जो आँख बन्द कर देवताओं के पीछे दौड़ रहे थे। भगवान् महावीर ने कहा-'साधक देवताओं के लिए नहीं है, किन्तु देवता साधकों के लिए है। साधक देवता के चरणों में नहीं, अपितु देवता ही साधक के चरणों में नमस्कार करते हैं।' उन्होंने आध्यात्मिक जीवन की भूमिका स्पष्ट करते हुए बतलाया कि 'देवावि तं नमसंति जस्स धम्मे सयामणो।'-दशवै १, १. देवता उसे नमस्कार करते हैं, जिसका मन धर्म में अर्थात् अपने स्वरूप में रमण करता है । हम लोग देवता को बहुत बड़ी हस्ती समझ बैठे हैं, किन्तु धर्माराधक मनुष्य के सामने देवता का कोई मूल्य नहीं है। देवता तो स्वयं मनुष्य रूप में जन्म लेकर आध्यात्मिक साधना करने के लिए लालायित रहते हैं। एक नहीं, कोटि-कोटि देवता आध्यात्मिक साधक की सेवा में संलग्न रहकर अपना अहोभाग्य समझते हैं। चांडाल पूत्र हरिकेश को अपने प्रारम्भिक जीवन में कितनी पीड़ाएँ और कितनी दारुण यातनाएँ सहनी पड़ी थीं। परंतु धर्म में अपने मन को उतारने के बाद वही चांडाल पुत्र हरिकेश मुनि बना और साधना का तेज बढ़ने लगा, तो उसका तप-तेज इतना दीप्त और विशाल हुआ कि देवता भी उसकी चरण-धूलि लेने को पीछे-पीछे फिरने लगे। एक दिन जिसका कोई नहीं था, उसी को एक दिन देवता सादर नमस्कार करने लगे। वह शक्ति, वह साधना कहीं बाहर से नहीं आई, किन्तु उसी के अन्तरतम में छिपी दिव्य शक्ति का विकास थी वह। जब अन्तर् का देवता जग गया, उसकी अमित शक्ति के परम तेज का आलोक इधर-उधर जगमगाने लगा, तो देवता अपने आप चरणों में दौड़े आए। ___ जब तक प्राणी परभाव में रहता है, तब तक उसकी दृष्टि अधोमुखी होती है। वह समझ नहीं पाता कि देवता बड़ा है या मैं बड़ा हूँ। अपने जीवन को पशु की तरह गुजारता हुआ वह सदा भटकता रहता है, रोता रहता है। किन्तु जब अपना बोध होता है, अन्तर का ऐश्वर्य और तेज निखरता है, तो फिर किसी अन्य के द्वार पर जाने की जरूरत नहीं रहती। यहाँ तक कि भगवान के द्वार पर भी भक्त नहीं जाता, बल्कि भगवान्' ही भक्त के पीछे-पीछे दौड़ता है। भारतवर्ष का एक महान साधक, जिसे हम कबीर के नाम से जानते हैं, बहुत ही अद्भुत आत्मगौरव और प्रात्मतेज का धनी था। उसने भक्तों से कहा है कि तुम क्यों भगवान के पीछे पड़े हो ? यदि तुम सच्चे भक्त हो, तुम्हारे पास सच्चा धर्म का उद्देश्य क्या है? १६६ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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