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________________ सुयोग, तो वह होता है, जो जीवन-निर्माण की आधारशिला बनता है। हम उसी सुयोग की चर्चा करेंगे। ___इस प्रकार, किसी अप्राप्त श्रेष्ठ-अच्छी वस्तु का प्राप्तिरूप योग महत्त्व-पूर्ण है, किन्तु यदि योग के साथ क्षेम नहीं हुआ, तो कोरे योग से क्या लाभ? योग की महत्ता क्षेम की महत्ता पर आधारित है। क्षेम का अर्थ: क्षेम का अर्थ है-'प्राप्तस्य संरक्षणं क्षेमः।' प्राप्त हुई वस्तु की रक्षा करना, उसका यथोचित उपयोग करना, क्षेम है। योग के साथ क्षेम उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार कि जन्म के बाद बच्चे का पालन-पोषण । संयोग से सुयोग श्रेष्ठ है, किन्तु सुयोग से भी बड़ा है-क्षेम, अर्थात् उचित संरक्षण, उचित उपयोग। धन कामना कोई बड़ी बात नहीं है, किन्तु उसकी रक्षा करना, उसका सदुपयोग करना बहुत ही कठिन कार्य है। इसीलिए वह अधिक महत्त्वपूर्ण भी है। चरवाहे को रत्न का योग या सुयोग तो मिला, किन्तु वह उसका क्षेम नहीं कर सका। और, इसका यह परिणाम हुआ कि वह दरिद्र-का-दरिद्र ही रहा। अापको मनुष्य जीवन का योग तो मिल गया। यह ऐसी दुर्लभ वस्तु मिली, जिसका सभी ने एक स्वर से महत्त्व स्वीकार किया है। देवता भी जिसकी इच्छा करते हैं, वह वस्तु आपको मिली । भगवान् महावीर ने तो इसको बहुत महत्त्वपूर्ण शब्द से सम्बोधित किया है। उनके चरणों में राजा या रंक जब भी कोई व्यक्ति उपस्थित हुना, तो उन्होंने उसे 'देवानुप्रिय' जैसे श्रेष्ठ सम्बोधन से पुकारा। देवानुप्रिय का अर्थ है---यह मानव जीवन देवताओं को भी प्यारा है। ऐसे देव दुर्लभ जीवन का योग मिलने पर भी यदि उसका क्षेम--सदुपयोग नहीं किया जा सका, तो क्या लाभ हुआ? मनुष्य की महत्ता सिर्फ मनुष्य जन्म प्राप्त होने से ही नहीं होती; उसकी महत्ता है इसके उपयोग पर | जो प्राप्त मानव जीवन का जितना अधिक सदुपयोग करता है, उसका जीवन उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है। वैसे मानव-जीवन तो अनेक बार पहले भी मिल चुका है, किन्तु उसका सदुपयोग नहीं किया गया। चरवाहे की तरह, बस उसे खेल की ही वस्तु समझ बैठे और आखिर खेल-खेल में ही उसे गवाँ भी दिया। इसलिए योग से क्षेम महान है। संयोग से उपयोग प्रधान है। भारत की वैष्णव-परम्परा के सन्त अपने भक्त से कहता है कि तू भगवान् से धन की कामना मत कर, यहाँ तक कि अपनी आयु की कामना भी मत कर, एकमात्र जीवन के सदुपयोग की कामना कर। और जैन शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि जीवन की कामना भी नहीं करनी चाहिए-"जीवियं नाभिकखेज्जा।" खाली जीवन के लिए जीवन का क्या चाहना? यह जीवन तो, पशु-पक्षी, कीट-पतंगों को भी प्राप्त है। . जीवन केवल जीने के लिए ही नहीं है, जीवन सदुपयोग के लिए है, अत: जीवन के सदुपयोग की कामना करो। इस प्राप्त शरीर से तुम संसार का कितना भला कर सकते हो, यह देखो! भारतवर्ष के प्राचार्यों का दर्शन बताता है कि तुम कभी अपने सुख की माँग मत करो, धन-वैभव की याचना मत करो, किन्तु विश्व की भलाई की कामना अवश्य करो। यदि संयोग से धन प्राप्त हो जाता है, तो उसके सदुपयोग की बुद्धि पाए, यही कामना करो। संस्कृत-साहित्य में भगवान से प्रार्थना के रूप में भक्त के द्वारा कही गई एक पुरानी सूक्ति है "नत्वहं कामये राज्यं, न स्वर्ग नापुनर्भवम् । कामये दुःख तप्तानां, प्राणिनामातिनाशनम् ॥" भक्त कहता है-हे प्रभो ! न मुझे राज्य चाहिए, न स्वर्ग और न अमरत्व ही चाहिए। किन्तु दुःखी प्राणियों की पीड़ा मिटा सकू; ऐसी शक्ति चाहिए। एक ओर आप पेट भर १६० पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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