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चार भावनाएँ:
जैन धर्म में चार भावनाओं की विशेष चर्चा आती है। प्राचार्य उमास्वाति ने, जिन्होंने जैन-दर्शन को सर्वप्रथम सूत्र रूप में प्रस्तुत किया, चार भावनाओं को व्यवस्थित रूप में गूंथा है। बीज रूप में आगमों में वे भावनाए यत्र-तत्र अंकुरित हुई थी, किन्तु उमास्वाति ने उन्हें एक धागे में पिरोकर सर्वप्रथम पुष्पहार का सुन्दर रूप दिया। प्राचार्य अमितगति ने उन्ही को अभ्यर्थना के एक श्लोक में इस प्रकार ग्रथित किया है--
"सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥"
मैं समझता हूँ, सम्पूर्ण जैन-सहित्य में से यदि यह एक श्लोक ही अाखिर तक हमारे पास बचा रहे, तो सब कुछ बचा रहेगा।
सस्वेषु मैत्रीम--यह एक ऐसा आदर्श है, जिसका स्वर वेद, उपनिषद्, पागम और पिटक-सर्वत्र गूंज रहा है। मैत्री-भावना मन की वृत्तियों का बहुत ही उदात्त रूप है, प्रत्येक प्राणी के साथ मित्रता की कल्पना ही नहीं, अपितु उसकी सच्ची अनुभूति करना, उसके प्रति एकात्मभाव तथा तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करना, वास्तव में चैतन्य की एक विराट अनुभूति है। मेरा तो विश्वास है कि यदि मैत्री-भावना का पूर्ण विकास मानव में हो सके, तो फिर यह विश्व ही उसके लिए स्वर्ग का नन्दन कानन बन जाए। जिस प्रकार मित्र के घर में हम और हमारे घर में मित्र निर्भय, और निःसंकोच भाव से सहज स्नेह और सद्भावनापूर्ण व्यवहार करते हैं, उसी प्रकार समस्त विश्व को भी हम परस्पर मित्र के घर के रूप में देखें। कहीं भय, संकोच एवं आतंक की लहर नहीं हो । कितनी सुखद और उदात्त भावना है यह ! व्यक्ति-व्यक्ति में मैत्री हो, परिवार-परिवार में मैत्री हो, समाज-समाज तथा राष्ट्र-राष्ट्र में मैत्री हो, तो फिर आज की जितनी समस्याएँ हैं, वे सब निर्मूल हो सकती हैं। मार-काट, धोखा-घड़ी और लूट-खसोट से लेकर परमाणुशस्त्रों तक की विभीषिका इसी एक भावना से समाप्त हो सकती है।
गुणिषु प्रमोदम्--दूसरी भावना का स्वरूप है गुणीजनों के प्रति प्रमोद ! किसी की अच्छी बात देखकर, उसकी विशेषता और गुण देखकर कभी-कभी हमारे मन में एक अज्ञात ललक, हर्षानुभूति होती है, हृदय में आनन्द की एक लहर-सी उठती है, बस यह आनन्द एवं हर्ष की लहर ही प्रमोद-भावना है। किन्तु इस प्रकार की अनुभूति के अवसर जीवन में बहुत ही कम पाते हैं. ऐसा मुझे लगता है।
मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्घलता यही है कि वह दूसरों की बुराई में बहुत रस लेता है। ईर्ष्या और डाह का पुतला होता है। दूसरे किसी का उत्कर्ष देखता है, तो जल उठता है। पड़ौसी को सुखी देखता है, तो स्वयं बेचैन हो जाता है। अपने से बढ़कर किसी ने कुछ सत्कर्म कर दिखाया, तो बस उसे व्यंग, ताना आदि के चुटीले शब्दों से बींध डालने की कोशिश करते हैं। जीवन की यह बड़ी विषम स्थिति है। मनुष्य का मन, जब देखो तब ईर्ष्या, डाह, प्रतिस्पर्धा में जलता रहता है। ऐसी स्थिति में गुणीजनों के प्रति प्रमोद भाव हो, तो कैसे हो?
ईर्ष्या की आग कभी-कभी इतनी विकराल हो जाती है कि मनुष्य अपने भाई और पुत्र के उत्कर्ष को भी फूटी आँखों नहीं देख सकता। एक ऐसे पिता को मैंने देखा है, जो अपने पुत्र की उन्नति से जला-भुना रहता था। पुन्न बड़ा प्रतिभाशाली और तेज था, पिता के सब व्यापार को संभाल ही नहीं रहा था, बल्कि उसको काफी बढ़ा भी रहा था। मिलनसार इतना कि जो भी लोग पाते, सब उसे ही पूछते । सेठजी बैठे होते, तब भी
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पन्ना समिक्खए धम्म
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